वेनिस फिल्म समारोह ( Venice Film Festival 2020 ) में 1937 में पहली बार भारतीय फिल्म ‘संत तुकाराम’ (मराठी) ( Sant Tukaram Movie ) ने सुर्खियां बटोरी थीं, जब इसे दुनिया की तीन बेहतरीन फिल्मों में गिना गया। इसके 20 साल बाद 1957 में पहली बार भारत की ‘अपराजितो’ ( Aparajito Movie ) ने गोल्डन लॉयन अवॉर्ड ( Golden Lion Award ) जीता। निर्देशक सत्यजित राय की इस फिल्म की यह उपलब्धि इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण थी कि इसने जापान के मशहूर फिल्मकार अकीरा कुरोसावा की बहुचर्चित ‘थ्रॉन ऑफ ब्लड’ को हरा कर यह जीत हासिल की थी। दूसरे गोल्डन लॉयन के लिए भारत को 44 साल इंतजार करना पड़ा। मीरा नायर की ‘मानसून वेडिंग’ को 2001 में इस अवॉर्ड से नवाजा गया। अब 19 साल बाद ‘द डिसाइपल’ भारत के खाते में तीसरा गोल्डन लॉयन अवॉर्ड जोडऩे के लिए दौड़ में है।
वेनिस, कान्स, बर्लिन और टोरंटो के फिल्मोत्सव में भारतीय सिनेमा की नाम मात्र की शिरकत से साफ है कि हमारी फिल्में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने के मोर्चे पर फिसड्डी साबित हो रही हैं। हमारे ज्यादातर फिल्मकार देशी-विदेशी फिल्मों के रीमेक में उलझे रहते हैं या आजमाए हुए फार्मूलों को बार-बार दोहराते रहते हैं। सिनेमा से भी दूसरी कलाओं की तरह नई कल्पनाओं, नए सृजन और नए विचारों का आग्रह रहता है। लेकिन हमारी फिल्में उन्हीं घिसे-पिटे मसालों में पकती रहती हैं, जिनके जायके में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की कोई दिलचस्पी नहीं है। भारतीय सिनेमा की भलाई इसी में है कि फिल्मों की गिनती के बजाय गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। जैसा कि महबूब खिजां ने फरमाया है- ‘मैं तुम्हें कैसे बताऊं क्या कहो/ कम कहो, अपना कहो, अच्छा कहो।’