बेतुके बोलों वाला यह गाना कुमार और राज शेखर ने लिखा है। इस दौर के ज्यादातर गीतकार इसी तरह के गाने लिख रहे हैं। फिल्मों में गीत-संगीत कोमल भावनाओं से दूर होकर क्षणिक उत्तेजना का साधन बन गए हैं। पहले फिल्मों में गाने लिखने के लिए कवि या शायर होना जरूरी था। अब कोई भी यह काम निपटा सकता है। अश्लील और द्विअर्थी शब्दावली को लेकर आलोचना होती रहती है। इन्हें लिखने वाले चिकने घड़े हो गए हैं। सेंसर बोर्ड भी गोया ऐसे गानों को बगैर सुने हरी झंडी दिखा देता है। वर्ना ‘अपना टाइम आएगा’ (गली बॉय) में जो आपत्तिजनक शब्द था, उसे हटाया जाना चाहिए था। ‘रिंग रिंग रिंगा’ (स्लमडोग मिलिनेयर) के अंतरे की अश्लीलता जस की तस रही। यही मामला ‘कुंडी मत खड़काओ राजा’ (गब्बर इज बैक), ‘गुटुर गुटुर’ (दलाल), ‘आ रे प्रीतम प्यारे’ (राउडी राठौड़), ‘हलकट जवानी’ (हीरोइन), ‘रुकमणी रुकमणी’ (रोजा), ‘लैला तुझे लूट लेगी’ (शूटआइट एट वडाला), ‘राधा ऑन द डांस फ्लोर’ (स्टूडेंट्स ऑफ द ईयर) समेत कई और गानों के साथ रहा।
दरअसल, फिल्मों में संगीत अब साधना नहीं रहा, खालिस कारोबार बन गया है। पुराने गानों में अगर मेलोडी, सादगी और भावनाओं पर जोर था तो अब पश्चिमी वाद्यों के शोर और बेतुकी शब्दावली से काम चलाया जा रहा है। संगीत के साथ जुड़ी आस्था, कलात्मकता और आध्यात्मिकता से फिल्मी गाने काफी पहले आजाद हो चुके हैं। फिल्म संगीत सिर्फ शरीर हो गया है, आत्मा गायब है। आज के गीतकार और संगीतकार तर्क देते हैं कि इन दिनों जो पसंद किया जाता है, वे वही दे रहे हैं। जमीन से कटा उनका यह तर्क मजबूरी से ज्यादा उनके मानसिक बंजरपन को रेखांकित करता है।