क्या सिनेमा के बारे में महात्मा गांधी के विचारों को लेकर भारतीय सिनेमा कई साल तक उनकी उपेक्षा करता रहा? वर्ना क्या वजह थी कि उन पर पहली डॉक्यूमेंट्री और पहली फीचर फिल्म विदेशी फिल्मकारों ने बनाईं। ‘बीसवीं सदी के पैगम्बर : महात्मा गांधी’ नाम की डॉक्यूमेंट्री चीनी पत्रकार, फिल्मकार और सैलानी ए.के. चट्टीएर ने बनाई, जो पहली बार दिल्ली में 15 अगस्त, 1947 को दिखाई गई। इसके 35 साल बाद राष्ट्रपिता की बायोपिक ‘गांधी’ (1982) सिनेमाघरों में पहुंची। संयोग देखिए कि जिस ब्रिटिश हुकूमत को भारत से खदेडऩे के लिए साबरमती के संत ने लम्बी लड़ाई लड़ी, वहीं के फिल्मकार सर रिचर्ड एटनबरो ने यह फिल्म बनाई। इसकी पटकथा उन्होंने 1960 में तैयार कर ली थी। कई अड़चनों के बाद 1980 में फिल्म की शूटिंग शुरू हो सकी। इसके कुछ सीन झीलों के शहर उदयपुर में भी फिल्माए गए। महात्मा गांधी के अंतिम संस्कार का सीन तीन लाख एक्स्ट्रा कलाकारों के साथ फिल्माया गया, जो अपने आप में रेकॉर्ड है।
कम लोगों को पता होगा कि ‘गांधी’ में महात्मा गांधी का किरदार निभाने वाले ब्रिटिश अभिनेता बेन किंग्सले का रिश्ता अपरोक्ष रूप से गांधी के गुजरात से रहा है। उनके पिता डॉ. रहीमतुल्ला हरजी भानजी मूलत: गुजरात के थे और कीनिया में बस गए थे। किंग्सले का असली नाम कृष्णा पंडित भानजी है। उन्होंने फिल्म में गांधी को जिया था। बाद में भारत में भी गांधी पर कुछ फिल्में बनीं (द मेकिंग ऑफ महात्मा, हे राम, गांधी- माय फादर), लेकिन इनमें से किसी का किरदार बेन किंग्सले की ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका। ‘गांधी’ में उन्होंने जो चश्मा पहना था, वह उदयपुर के सिटी पैलेस म्यूजियम में रखा गया है।
सर्वश्रेष्ठ फिल्म समेत आठ ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली ‘गांधी’ महज फिल्म नहीं, महात्मा गांधी के जीवन और विचारों का महाकाव्य है। इसमें एक दौर के भारत की धड़कनों को साफ-साफ सुना जा सकता है। वक्त कितना बदल गया है। जिस टोपी के आगे कभी पूरा देश झुकता था, आज उछाली जा रही है। देश जिस दौर से गुजर रहा है, अगर गांधी देख पाते तो शायद रो पड़ते- क्या यही सब देखने के लिए वे तूफान से कश्ती निकाल कर लाए थे?