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नेशनल अवॉर्ड विजेता ‘दस्तक’ के 50 साल, वो लम्हे बदनाम बस्ती के

locationमुंबईPublished: Aug 10, 2020 02:59:04 pm

मामूली घटनाक्रम को अपनी कहानियों में गैर-मामूली बनाने की महारथ रखने वाले बेदी ने ‘दस्तक’ ( Dastak Movie ) के जोड़े की दुश्वारियों को बड़े सलीके से पर्दे पर उतारा। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म को चार नेशनल अवॉर्ड ( National Film Award ) से नवाजा गया।

नेशनल अवॉर्ड विजेता 'दस्तक' के 50 साल, वो लम्हे बदनाम बस्ती के

नेशनल अवॉर्ड विजेता ‘दस्तक’ के 50 साल, वो लम्हे बदनाम बस्ती के

-दिनेश ठाकुर
भारत में समानांतर सिनेमा आंदोलन के शुरुआती दौर में मील का पत्थर साबित हुई राजिन्दर सिंह बेदी की फिल्म ‘दस्तक’ (1970) ( Dastak Movie ) अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रवेश करने वाली है। निर्देशक की हैसियत से उर्दू के कहानीकार बेदी की यह पहली फिल्म थी। इसमें एक जोड़े (संजीव कुमार, रेहाना सुलतान) की कहानी है, जो रेडलाइट एरिया के एक मकान में रहने आता है। वक्त-बेवक्त दरवाजे पर होने वाली दस्तक उनकी निजता में खलल डालती रहती है। मामूली घटनाक्रम को अपनी कहानियों में गैर-मामूली बनाने की महारथ रखने वाले बेदी ने ‘दस्तक’ के जोड़े की दुश्वारियों को बड़े सलीके से पर्दे पर उतारा। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म को चार नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया। मदनमोहन की धुन वाले इसके ‘माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की’, ‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ बाजार (गली-बाजार में बिकने वाली चीजों) की तरह’ और ‘बैयां न धरो’ की लोकप्रियता आज भी बरकरार है।

फिल्मों में राजिन्दर सिंह बेदी ‘दस्तक’ से काफी पहले सक्रिय थे। उन्होंने दिलीप कुमार की ‘दाग’, ‘देवदास’, ‘मधुमति’, सोहराब मोदी की ‘मिर्जा गालिब’, हृषिकेश मुखर्जी की ‘अनुराधा’, ‘अनुपमा’ और ‘सत्यकाम’ के संवाद लिखे। उनकी कहानी पर बलराज साहनी और निरुपा रॉय को लेकर ‘गरम कोट’ (1955) बनी। ‘दस्तक’ के बाद बतौर निर्देशक उन्होंने तीन फिल्में और बनाईं- ‘फागुन’, ‘नवाब साहिब’ और ‘आंखिन देखी।’ अपना उपन्यास ‘एक चादर मैली-सी’ उनके दिल के ज्यादा करीब था, जिसे साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाजा गया। बेदी ने 1960 में धर्मेंद्र और गीता बाली को लेकर इस पर फिल्म बनाने का काम शुरू किया, लेकिन गीता बाली के देहांत की वजह से यह फिल्म नहीं बन सकी। इस उपन्यास पर 1978 में पाकिस्तान में ‘मुट्ठी भर चावल’ नाम से फिल्म बनी। भारत में बेदी का अधूरा सपना उनके देहांत के दो साल बाद पूरा हुआ, जब सुखवंत ढड्डा ने हेमा मालिनी और ऋषि कपूर को लेकर ‘एक चादर मैली-सी’ (1986) बनाई।

राजिन्दर सिंह बेदी कभी ठहाकों और कहकहों के लिए मशहूर थे, लेकिन फिल्मकार बेटे नरेंद्र बेदी (जवानी-दीवानी, सनम तेरी कसम) के देहांत ने उन्हें तोड़ दिया। उम्र के आखिरी पड़ाव में सम्मेलनों, गोष्ठियों में वे खोए-खोए नजर आते थे और अपनी कहानियों पर चर्चा के दौरान भी उनकी आंखें कहीं और भटकती रहती थीं- ‘वही है जिंदगी लेकिन ‘जिगर’ ये हाल है अपना/ कि जैसे जिंदगी से जिंदगी कम होती जाती है।’

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