आम फार्मूलों से हटकर ‘सजा-ए-मौत’ (1981) उल्लेखनीय फिल्म है। यह निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की पहली फिल्म थी। उन्हीं की शॉर्ट फिल्म ‘मर्डर एट मंकी हिल’ (1975) पर आधारित इस फिल्म को हिन्दी सिनेमा में अल्फ्रेड हिचकॉकवादी रहस्य-रोमांच की परम्परा की शुरुआत माना जाता है। यह एक बेरोजगार इंजीनियर (नसीरुद्दीन शाह) की कहानी है, जो बौखला कर एक रईस की हत्या के बाद ऐसे आदमी के जाल में फंस जाता है, जो कानून और उसके रक्षकों को खरीदने की ताकत रखता है। यह आदमी चाहता है कि इंजीनियर उस रईस की विधवा (राधा सलूजा) को भी ठिकाने लगा दे। ‘सजा-ए-मौत’ में कानूनी दांव-पेच और एक बेराजगार के अंतद्र्वन्द्व को बड़े सलीके से पर्दे पर उतारा गया।
मौत की सजा पर एक और सलीकेदार फिल्म है ‘मरण सिंहासनम’ (1999)। मुरली नायर के निर्देशन में बनी इस मलयालम फिल्म में एक गरीब किसान को नारियल चुराने के आरोप में पकड़ा जाता है। उस पर एक युवक की हत्या का भी आरोप है, जो कई साल से लापता है। उसे जल्दबाजी में मौत की सजा देने की कोशिश चल रही है, क्योंकि एक तबका ‘इलेक्ट्रिक कुर्सी से देश में पहली मौत की सजा’ को लेकर सुर्खियां बटोरना चाहता है। इस तरीके से सजा कुछ देशों में दी जाती है। भारत में फांसी का फंदा ही प्रचलित है। बहरहाल, केरल में फिल्माई गई ‘मरण सिंहासनम’ ने अपने कथानक के साथ-साथ लाजवाब फोटोग्राफी के लिए भी वाहवाही बटोरी। कान फिल्म समारोह में इसे गोल्डन कैमरा अवॉर्ड से नवाजा गया था। हैरानी की बात है कि फांसी देने वाले जल्लादों पर फिल्मकारों का ध्यान अब तक नहीं गया है। संवेदनशील नजरिए से इन पर फिल्म बनाने की गुंजाइश तो है।