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‘सजा-ए-मौत’पर बन चुकी हैं कई फिल्में, किस्सों पर हावी फार्मूले

locationमुंबईPublished: Mar 20, 2020 06:01:45 pm

Submitted by:

Mahendra Yadav

तारीख पर तारीख के लम्बे सिलसिले के बाद आखिरकार निर्भया कांड के चारों मुजरिम फांसी पर लटका दिए गए।

'सजा-ए-मौत'पर बन चुकी हैं कई फिल्में, किस्सों पर हावी फार्मूले

‘सजा-ए-मौत’पर बन चुकी हैं कई फिल्में, किस्सों पर हावी फार्मूले

दिनेश ठाकुर

तारीख पर तारीख के लम्बे सिलसिले के बाद आखिरकार निर्भया कांड के चारों मुजरिम फांसी पर लटका दिए गए। उनके बचने के सभी रास्ते बंद हो चुके थे। वे हकीकत की दुनिया के मुजरिम थे, उनका यही अंजाम होना था। अगर उस काल्पनिक दुनिया के मुजरिम होते, जो फिल्मों में दिखाई जाती है, फिर तो कुछ भी हो सकता था। याद आती है मनमोहन देसाई की ‘रोटी’ (1975), जिसमें एक युवक की हत्या को लेकर हीरो (राजेश खन्ना) को फांसी की सजा सुनाई जाती है। हीरो नहीं रहेगा तो फिल्म आगे कैसे बढ़ेगी? इसलिए इधर जेल में फांसी की तैयारियां शुरू होती हैं, उधर हीरो जेल से भाग निकलता है। मनमोहन देसाई की फिल्मों की घटनाएं ‘टेलरमेड’ हुआ करती थीं। यानी संयोगों का पिटारा। ‘रोटी’ का हीरो जेल से भाग कर उसी गांव में पहुंचा, जहां के युवक की हत्या का उस पर आरोप था। उसे पनाह भी उस युवक के बूढ़े मां-बाप ने दी। गांव में उसे टीचर की नौकरी मिल गई और ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर’ पर जुगलबंदी के लिए हीरोइन (मुमताज) भी। उसने गांव वालों का दिल जीत लिया। वह हीरोइन के साथ कहीं और जाकर बसना चाहता था (पता नहीं पाकिस्तान या अफगानिस्तान), लेकिन आखिर में पुलिस की गोलियों से मारा जाता है। इसी से मिलती-जुलती कहानी पर इससे पहले धर्मेंद्र और मुमताज की ‘लोफर’ (1973) आ चुकी थी। ‘रोटी’ के तीन साल बाद एक फिल्म आई ‘फांसी’ (शशि कपूर, सुलक्षणा पंडित)। इसका मौत की सजा से कोई लेना-देना नहीं था। यह डाकुओं के फार्मूले वाली फिल्म थी। हॉलीवुड में कभी यह बात मुहावरे की तरह चलती थी कि जब कुछ भी न सूझे तो डाकुओं पर फिल्म बनाओ। बॉलीवुड ने भी इसका खूब अनुसरण किया। हरमेश मल्होत्रा की ‘फांसी के बाद’ (१९८५) का ताना-बाना जरूर मौत की सजा के इर्द-गिर्द बुना गया था। इस फिल्म का हीरो (शत्रुघ्न सिन्हा) वकील है। वह एक सजायाफ्ता कैदी के मामले की जांच-पड़ताल करता है। बिखरी हुई कहानी वाली यह फिल्म टिकट खिड़की पर ढेर हो गई थी।
'सजा-ए-मौत'पर बन चुकी हैं कई फिल्में, किस्सों पर हावी फार्मूले
आम फार्मूलों से हटकर ‘सजा-ए-मौत’ (1981) उल्लेखनीय फिल्म है। यह निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की पहली फिल्म थी। उन्हीं की शॉर्ट फिल्म ‘मर्डर एट मंकी हिल’ (1975) पर आधारित इस फिल्म को हिन्दी सिनेमा में अल्फ्रेड हिचकॉकवादी रहस्य-रोमांच की परम्परा की शुरुआत माना जाता है। यह एक बेरोजगार इंजीनियर (नसीरुद्दीन शाह) की कहानी है, जो बौखला कर एक रईस की हत्या के बाद ऐसे आदमी के जाल में फंस जाता है, जो कानून और उसके रक्षकों को खरीदने की ताकत रखता है। यह आदमी चाहता है कि इंजीनियर उस रईस की विधवा (राधा सलूजा) को भी ठिकाने लगा दे। ‘सजा-ए-मौत’ में कानूनी दांव-पेच और एक बेराजगार के अंतद्र्वन्द्व को बड़े सलीके से पर्दे पर उतारा गया।
'सजा-ए-मौत'पर बन चुकी हैं कई फिल्में, किस्सों पर हावी फार्मूले
मौत की सजा पर एक और सलीकेदार फिल्म है ‘मरण सिंहासनम’ (1999)। मुरली नायर के निर्देशन में बनी इस मलयालम फिल्म में एक गरीब किसान को नारियल चुराने के आरोप में पकड़ा जाता है। उस पर एक युवक की हत्या का भी आरोप है, जो कई साल से लापता है। उसे जल्दबाजी में मौत की सजा देने की कोशिश चल रही है, क्योंकि एक तबका ‘इलेक्ट्रिक कुर्सी से देश में पहली मौत की सजा’ को लेकर सुर्खियां बटोरना चाहता है। इस तरीके से सजा कुछ देशों में दी जाती है। भारत में फांसी का फंदा ही प्रचलित है। बहरहाल, केरल में फिल्माई गई ‘मरण सिंहासनम’ ने अपने कथानक के साथ-साथ लाजवाब फोटोग्राफी के लिए भी वाहवाही बटोरी। कान फिल्म समारोह में इसे गोल्डन कैमरा अवॉर्ड से नवाजा गया था। हैरानी की बात है कि फांसी देने वाले जल्लादों पर फिल्मकारों का ध्यान अब तक नहीं गया है। संवेदनशील नजरिए से इन पर फिल्म बनाने की गुंजाइश तो है।

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