बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म ‘हिप हिप हुर्रे’ (1984) में ही उन्होंने जता दिया था कि उनकी शैली दूसरे फिल्मकारों से अलग रहेगी। इस शैली को कला और फार्मूला फिल्मों के बीच की धारा कहा जा सकता है। यानी फिल्म-कला की गरिमा का भी ध्यान रखा जाए और कारोबारी संभावनाओं का भी। कोई फिल्म ठीक-ठाक कारोबार करेगी, तभी अगली फिल्म के लिए पूंजी के रास्ते खुलेंगे। ‘हिप हिप हुर्रे’ में प्रकाश झा ने एक कम्प्यूटर इंजीनियर (राज किरण) को बतौर नायक पेश किया, जो एक स्कूल में अस्थाई खेल शिक्षक है। उसकी सूझबूझ से छात्रों की फुटबॉल टीम चैम्पियनशिप जीतने में कामयाब रहती है। इसके बाद उन्होंने बंधुआ मजदूरों पर ‘दामुल’ (1985) बनाई, जिसे नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया। उनकी ‘परिणति’, ‘मृत्युदंड’, ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’, ‘राजनीति’, ‘आरक्षण’ और ‘सत्याग्रह’ भी सार्थक सिनेमा की नुमाइंदगी करती हैं।
इन दिनों प्रकाश झा की नई फिल्म ‘परीक्षा- द फाइनल टेस्ट’ सुर्खियों में है। वैसे यह पिछले साल भी सुर्खियों में रही थी, जब भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसका प्रीमियर हुआ था। लम्बे समय से सिनेमाघरों में पहुंचने का इंतजार कर रही इस फिल्म को अब सीधे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उतारने की तैयारी है। ‘आरक्षण’ के बाद ‘परीक्षा – द फाइनल टेस्ट’ में प्रकाश झा फिर शिक्षा व्यवस्था की तरफ मुड़े हैं। इसकी कहानी बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक अभयानंद के अनुभवों पर आधारित है, जिन्होंने पद की जिम्मेदारियां निभाने के अलावा बिहार के आपराधिक क्षेत्रों के बच्चों को आईआईटी परीक्षा की कोचिंग देकर उनका भविष्य संवार दिया। इनमें एक रिक्शा चालक का बेटा शामिल है। फिल्म में आदिल हुसैन, संजय सूरी, प्रियंका बोस और शुभम झा ने अहम किरदार अदा किए हैं।
‘परीक्षा – द फाइनल टेस्ट’ ( Pareeksha The Final Test ) का कथानक ऋतिक रोशन की ‘सुपर 30’ ( Super 30 ) से मिलता-जुलता लगता है, लेकिन प्रकाश झा अपनी फिल्म को सच्ची घटनाओं पर आधारित बता रहे हैं तो इससे एक बड़ी बात उभरती है। वह यह कि ऐसे दौर में, जब ज्यादातर संस्थानों में शिक्षा कारोबार में तब्दील हो चुकी है, पर्दे के पीछे ऐसे कई नायक हैं, जो निस्वार्थ भाव से मध्यम और गरीब वर्ग के बच्चों में ज्ञान का उजाला बिखेर रहे हैं। ऐसे नायकों पर फिल्मों का सिलसिला जारी रहना चाहिए।