तुम चली जाओगी, परछाइयां रह जाएंगी…
साहिर की शायरी में महिलाओं का पक्ष इसलिए बार-बार बुलंद हुआ कि वह अपनी मां सरदार बेगम को बेपनाह चाहते थे। मैक्सिम गोर्की के क्लासिक उपन्यास ‘मदर’ के नायक पावेल की जिंदगी के हर पहलू में उसकी मां घुली-मिली महसूस होती है। उसी तरह साहिर की शख्सियत में रह-रहकर उनकी मां की परछाइयां उभरती हैं। उनका एक गीत है- ‘तुम चली जाओगी, परछाइयां रह जाएंगी’ (शगुन)। शायद यहां भी उनका इशारा अपनी मां की परछाइयों की तरफ था। साहिर के पिता लुधियाना के अय्याश जागीरदार थे। साहिर के बचपन में जुल्मों से परेशान होकर सरदार बेगम पति से अलग हो गई थीं। गुजर-बसर के लिए मां के संघर्ष की परछाइयां हमेशा साहिर के साथ रहीं। मुम्बई में उनके आशियाने का नाम ‘परछाइयां’ था। मां के इंतकाल के बाद साहिर टूट गए। चार साल बाद उन्हें मां की कब्र के पास दफनाया गया।
अपनी शर्तों पर रचे बेशुमार नायाब गीत
चंद हस्तियां हैं, जिन्हें सिनेमा और साहित्य के बीच पुख्ता पुल कहा जा सकता है। इनमें साहिर शामिल हैं। फिल्मों से जुडऩे से पहले वह तरक्कीपसंद शायर के तौर पर उभर चुके थे। फिल्मों में उन्होंने अपनी शर्तों पर ऐसे-ऐसे नायाब गीत रचे, जो सिर्फ वही रच सकते थे। ‘ठंडी हवाएं, लहराके आएं’, ‘नीले गगन के तले’, ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’,’तोरा मन दर्पण कहलाए’, ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया’, ‘संसार की हर शै का इतना ही फसाना है’, ‘वो सुबह कभी तो आएगी’, ‘मन रे तू काहे न धीर धरे’, ‘पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी’, ‘पोंछकर अश्क अपनी आंखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने’, ‘किसी पत्थर की मूरत से’, ‘तुम अपना रंजो-गम अपनी परेशानी मुझे दे दो’, ‘कभी-कभी मेरे दिल में’ जैसी बेशुमार रचनाएं हिन्दी सिनेमा का सरमाया (पूंजी) हैं।
जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं..
महिलाओं की दशा पर ‘चकले’ साहिर की खासी मकबूल नज्म है, जिसे गुरुदत्त की ‘प्यासा’ में शामिल किया गया। यह तवील नज्म यूं शुरू होती है, ‘ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के/ ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के/ कहां हैं कहां हैं मुहाफिज (रक्षक) खुदी (गर्व) के/ जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं।’ इस नज्म के बारे में साहिर के समकालीन शायर कैफी आजमी ने कहा था, ‘इसमें साहिर की गैरत, उनकी रूह, उनके एहसास की तिलमिलाहट बुलंदी के इंतिहाई नुक्ते (चरम बिन्दु) पर नजर आती है। मैं यह नज्म पढ़ता हूं तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं। साहिर ने जाने किस एहसास की किस शिद्दत से यह नज्म लिखी। उनके लहजे की मख्सूस अफसुर्दगी (विशिष्ट उदासी) यहां बेपनाह बहाव में तब्दील हो गई है।’