हालात से जूझती आबादी
जब भी किसी शहर की चमक-दमक बढ़ाने की कवायद होती है, उस मुफलिस आबादी पर बिजली गिरती है, जो फुटपाथों पर और झुग्गी-झोपडिय़ों में बसर करती है। मराठी साहित्यकार जयवंत दलवी ने अपने उपन्यास ‘चक्र’ में समाज के इस बदनसीब तबके की यातनाओं की तल्ख तस्वीरें खींची थीं। उतनी ही तल्खी के साथ फिल्मकार रवींद्र धर्मराज ने इसे ‘चक्र’ (1981) नाम की फिल्म में पर्दे पर पेश किया। जब किसी शहर में विकास के पहिए घूमते हैं, इस तबके के लोगों के ठिकाने उजड़तें हैं। उनके इलाके बदलते रहते हैं। बसने और उजडऩे का यह चक्र मुसलसल चलता रहता है। उनकी उम्र ‘अब यहां से कहां जाएं हम’ की पहेली से जूझते हुए गुजरती है।
हर बड़े शहर की कहानी
‘चक्र’ की कहानी मुम्बई में घूमती है। लेकिन यह देश के किसी भी बड़े शहर की कहानी हो सकती है। फिल्म की गरीब नायिका अम्मा (स्मिता पाटिल) नई जिंदगी की उम्मीद लेकर मुम्बई पहुंचती है। महानगर में सिर छिपाने के लिए वह सड़क और गंदे नाले के किनारे झोपड़ी डालकर रहने को मजबूर है। उसे जिंदगी में स्थायित्व की तलाश है, किसी के कंधों के सहारे की जरूरत है, अपने बेटे के भविष्य की चिंता है। इससे पहले कि रोशनी का कोई रास्ता खुलता, बुलडोजर उसकी गंदी बस्ती का सफाया करने पहुंच जाते हैं। बस्ती के दूसरे लोगों के साथ वह नए ठिकाने की खोज में निकल पड़ती है। इस फिल्म में सहज अभिनय के लिए स्मिता पाटिल को नेशनल और फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा गया, जबकि रवींद्र धर्मराज ने लोकार्नो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का खिताब जीता।
हजार झोपड़े गिरते हैं इक महल के लिए
बड़े शहरों में फुटपाथों और कच्ची बस्तियों में रहने वालों की दयनीय हालत पेश करते हुए रवींद्र धर्मराज ने ‘चक्र’ में सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को लेकर कई सवाल उठाए थे। आज 40 साल बाद भी हम इनके जवाब से दूर हैं। धर्मराज संवेदनशील फिल्मकार थे। उन्होंने ‘चक्र’ इस मकसद से बनाई थी कि बार-बार उजडऩे के लिए अभिशप्त आबादी की तरफ व्यवस्था का ध्यान जाएगा। इसकी बेहतरी के लिए कदम उठाए जाएंगे। फिल्म पूरी करने के बाद धर्मराज दुनिया से रुखसत हो गए। अगर जिंदा होते, तो इंदौर की घटना से उन्हें एहसास होता कि उजडऩे का चक्र पहले की तरह ही घूम रहा है। कतील शिफाई का शेर है- ‘सदा जिए ये मेरा शहरे-बेमिसाल जहां / हजार झोपड़े गिरते हैं इक महल के लिए।’