पुरानी फिल्मों में स्कूल शिक्षिका नायिकाओं के लिए छोटे-छोटे बच्चों को गाते हुए पढ़ाना अनिवार्य था। अक्सर गीत उनके निजी दुखों से जुड़े होते थे। बीच-बीच में बच्चों के कोरस स्वर भी गीत में शामिल हो जाते थे। नायिका अगर कॉलेज में पढ़ाने वाली हो तो फिल्म वाले यहां भी ग्लैमर की गुंजाइश निकाल लेते हैं। शाहरुख खान की ‘मैं हूं ना’ में सुष्मिता सेन कैमिस्ट्री की प्रोफेसर हैं। वे शिफॉन साडिय़ों में कॉलेज के गलियारों में यूं चहलकदमी करती हैं, गोया रैम्प वॉक कर रही हों। हाल ही वेब सीरीज ‘रसभरी’ में अंग्रेजी की शिक्षिका बनीं स्वरा भास्कर ने भी स्कूल में इसी तरह की फैशन परेड की।
ऐसी फिल्में गिनती की हैं, जिनमें शिक्षकों के किरदार गरिमा के साथ पेश किए गए। सत्येन बोस की ‘जागृति’ (1954) में अभि भट्टाचार्य ने ऐसे शिक्षक का किरदार अदा किया था, जो बच्चों को नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाता है। फिल्म में ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की’,’हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकालके’ और ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ जैसे प्रेरक, आदर्शवादी गीत थे। ‘सर’ में नसीरुद्दीन शाह, ‘ब्लैक’ में अमिताभ बच्चन, ‘तारे जमीन पर’ में आमिर खान, ‘हिचकी’ में रानी मुखर्जी, ‘चॉक एंड डस्टर’ में शबाना आजमी तथा जूही चावला और ‘सुपर 30’ में ऋतिक रोशन के किरदार भी यथार्थ के ज्यादा करीब हैं।
‘सुपर 30’ इस मामले में उल्लेखनीय फिल्म है कि यह इस संदेश को गहराई से रेखांकित करती है कि शिक्षक वही नहीं हैं, जो स्कूल-कॉलेज में पढ़ाते हैं। वे भी शिक्षक हैं, जो निस्वार्थ भाव से कमजोर वर्ग के बच्चों का मार्गदर्शन करते हैं और उनकी जिंदगी में ज्ञान का उजाला बिखेरते हैं। आज सबसे ज्यादा इसी उजाले की जरूरत है। ऐसा उजाला, जो हरेक के विवेक को जगा दे। शरर कश्मीरी फरमाते हैं- ‘क्या सही है, क्या गलत, बस यह सलीका चाहिए/ बाद का मंजर तो सबको खुद समझ आ जाएगा।’