सरकार के निर्णयों में संघ की क्या भूमिका है इसका भी वर्णन है। संघ की उत्त्पत्ति से लेकर एक संगठन के नाते उसके विचारों का वर्णन है। भारतीय जनता पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनावों में संघ ने कैसे खड़ा किया और पल-पल बदलते हालात के साथ सरकार का कैसे साथ दिया। यह भी सच्चाई है कि आरएसएस का अपना संविधान है जिसके बारे में उसके नेताओं और करीब से जानने वालों को भी पूरी तरह नहीं पता।
पुस्तक में तीन सवालों पर मुख्य रूप से प्रकाश डाला गया है। पहला कि पच्चीस वर्षों में संघ व इससे संबद्ध संगठनों का इतना तेजी से विस्तार कैसे हुआ? भारत के नए आर्थिक-सामाजिक परिवेश में किस तरह इन्होंने अपने को ढाला है? और इनका तेज विस्तार देश की राजनीति व नीतियों पर क्या असर डालेगा? साथ ही लेखकों की अंदर तक पहुंच के कारण संघ की आंतरिक कार्यप्रणाली को भी समझने में मदद मिलती है।
आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर वर्तमान में बीजेपी व आरएसएस के बीच कैसे संबंध हैं। यदि व्यक्तिगत संबंधों की बात करें तो नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत के संबध कैसे हैं? इसके बारे में उठ रहे सवालों के बीच लेखक के विचार हैं कि संघ के पैतृक संगठन जनसंघ की स्थापना गैर संघी श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी और उन्हें तब संघ प्रमुख गुरु गोवलकर का पूरा समर्थन मिला था। वे इसे केवल राजनीतिक संगठन नहीं बनाना चाहते थे। हालांकि संघ के कार्यकर्ता इसके राजनीतिक स्वरूप के पक्षधर थे। तब समझौते के तहत भारतयी जनसंघ बना जो इमरजेंसी के बाद वाजपेयी – आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी बना।
बीजेपी व आरएसएस के संबंधों पर संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से अनौपचारिक बातचीत के हवाले से एंडरसन कहते हैं कि उनका मानना है कि हम (संघ) पार्टी नहीं हैं और हम पार्टी बनना भी नहीं चाहते हैं। वर्ष 2014 के चुनावों में संघ प्रमुख के राजनीतिक बयानों के साथ कार्यकर्ताओं को यह संदेश भी स्पष्ट दिया गया था कि वे बीजेपी के लिए काम करते हुए ये बात ध्यान में रखें कि वे पहले संघ के स्वयंसेवक हैं। इस तरह दोनों के बीच अपनी मूल पहचान का स्पष्ट निर्धारण हैं। संघ , बीजेपी की जीत तो चाहता है कि लेकिन वो किस हद तक उसके साथ काम करने का इच्छुक है यह विस्तारित विषय है। 1977 और 2014 की तरह संघ व बीजेपी क्या 2019 के चुनावों में भी मिलकर काम करेंगे? इसके जवाब में एंडरसन का मानना है कि जब तक राजनीतिक रूप से कुछ बड़ा घटित नहीं होता है तो उतनी व्यापकता से ये साथ नहीं आएंगे लेकिन राजनीति में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। क्या संघ खुद सत्ता में नहीं आना चाहता? क्या वह सत्ता से दूर रहने का दिखावा कर रहा है?
एंडरसन के मुताबिक बीते दो दशक में संघ का फैलाव उस 1990 के दौर में भी हुआ जब बीजेपी सत्ता में नहीं थी बल्कि कांग्रेस का शासन था। संघ की दिलचस्पी गवर्नेन्स और नीतियों में है। पिछले तीस सालों में यह एक बड़ा बदलाव है। संघ से संबद्ध दर्जनों संगठनों का तेजी से विस्तार और समाज में जड़ें ंंमजबूत हुई हैं। क्या मोदी और भागवत के आपसी समीकरणों पर अगले चुनाव के नतीजे निर्भर करेंगे तो एंडरसन कहते हैं कि काफी कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। दोनों उम्र में लगभग समान हैं। दोनों अतीत में साथ काम कर चुके हैं। दोनों एक-दूसरे का काफी सम्मान करते हैं।
भागवत समझते हैं कि नीतियां प्रधानमंत्री व पार्टी के फैसले से जुड़ी हैं। जबकि प्रधानमंत्री भलीभांति जानते हैं कि काडर की ट्रेनिंग के लिहाज से संघ कितना जरूरी है। मौजूदा परिस्थतियों में संघ को भी लगता है कि बीजेपी अपने दम पर जीत सकती है और जहां तक पहले की तरह स्वयंसेवकों को बड़े स्तर पर सक्रिय करने की बात है तो यह स्वत: हो जाता है, मदद मांगने की जरूरत नहीं पड़ती।
एंडरसन ने किताब में लिखा है कि आरएसएस आमने-सामने और विचारों की नीति पर चलता है न कि कागज पर लिखे नियम कानून के अनुसार। किताब में गौ रक्षा, घर वापसी, आर्थिक नीति, श्रम सुधार और विदेशी निवेश पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। तर्क दिया है कि संघ इसमें मध्यस्थ की भूमिका में है जो भाजपा के कई अहम मुद्दों का नेतृत्व कर रहा है और भविष्य में भी करता रहेगा।
लेखक वाल्टर ए. एंडरसन अमरीका की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं। स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर हैं। श्रीधर डी दामले फ्रीलांस पत्रकार हैं और भारतीय मामलों के अमरीकी शोधार्थी हैं। एंडरसन ने भारत में अध्ययन भी किया है। हिंदी बोल व समझ भी लेते हैं। एंडरसन की पत्नी भारतीय (तमिल भाषी) हैं और वे तमिल भी समझ लेते हैं। एंडरसन व दामले इससे पहले संयुक्त रूप से 1987 में – द ब्रदरहुड इन सेफरन: दी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एंड हिंदू रिवाइवलिज्म लिख चुके हैं। संघ पर 50 वर्षों से अध्य्यन कर रहे हैं।