बूंदीPublished: Jan 15, 2021 08:56:49 pm
पंकज जोशी
बरुन्धन. कस्बे में राजा महाराजाओं के समय से चले आ रहे ऐतिहासिक खेल दड़ा महोत्सव में गुरुवार को जन सैलाब उमड़ पड़ा। हाड़ा वंशज के श्याम सिंह हाड़ा ने दड़े की पूजा अर्चना करके खेल की शुरुआत की।
800 साल पुरानी परम्परा चढ़ी परवान
800 साल पुरानी परम्परा चढ़ी परवान
दड़ा खेल में युवाओं ने दिखाया दमखम
बरुन्धन. कस्बे में राजा महाराजाओं के समय से चले आ रहे ऐतिहासिक खेल दड़ा महोत्सव में गुरुवार को जन सैलाब उमड़ पड़ा। हाड़ा वंशज के श्याम सिंह हाड़ा ने दड़े की पूजा अर्चना करके खेल की शुरुआत की। बरुन्धन, सीतापुरा, नावघाट का टापरा, धनातरी, अधेड़, गुमानपुरा, नमाना, भरता बावड़ी, लक्ष्मीपुरा, डोरा, गादेगाल, भंवरिया कुआं सहित अनेक गांवों से लोग दड़ा महोत्सव में भाग लेने पहुंचे। हर वर्ग के खिलाड़ी दड़े को खेलते हुए कभी गणेश मंदिर तो कभी लक्ष्मीनाथ मन्दिर की ओर ले जाते रहे। दड़े में खेल के दौरान धक्का मुक्की, खींचतान और तू तू मैं मैं चलती रही। छतों से महिलाएं एवं युवतियां खिलाडिय़ों पर फब्तियां कसती रही। ढोल की थाप पर खिलाडिय़ों का खेल के प्रति जोश बढ़ता गया।
दड़ा मरम्परा का इतिहास
ग्रामीणों व भाट जागा की पौथी के अनुसार संवत 1252 में इस गांव की स्थापना हुई। तब से अलग अलग जातियों के लोग यहां निवास करने लगे।
हाड़ा राजपूत के करीब 60 परिवार बरुन्धन में रहा करते थे। उनके द्वारा जोर आजमाइश के लिए इस खेल की शुरुआत हुई। खेल के लिए गेंद की तरह का 40 से 50 किलो वजनी दड़ा बनाया गया। जिसको बनाने के लिए सूत व रस्सियों को काम में लिया जाता हैं। राजपूत हाड़ाओं द्वारा इस दड़े को बाजार में रखकर खेलने की चुनौती दी जाती थी। एक पाले में हाड़ा राजपूत व दूसरे पाले में बरुन्धन व आसपास के ग्रामीण होते थे। खेल में दड़े को धकेलते हुए जो भी अपने पाले में ले जाता था, उसी की जीत मानी जाती थी। धीरे धीरे दड़े का वजन कम होता रहा। वर्तमान में हाड़ा वंशज के श्याम सिंह , नंद सिंह , हरिसिंह का परिवार इस परम्परा को चलाते आ रहे हैं। साथ में वर्षों से 94 वर्षीय बुजुर्ग देवलाल कुशवाह दड़ा बुनने में अपनी सेवा दे रहे हंै।