बूंदीPublished: Jun 14, 2021 10:24:03 pm
पंकज जोशी
रियासतकालीन जल भंडार बावडिय़ों को भूल गए। पूरे कस्बे की प्यास बुझाने वाली बावड़ियां बदहाल पड़ी है। कस्बे की गढ की बावड़ी व शम्भूबाग की बावड़ी पूरे कस्बे की प्यास बुझाती थी। भीषण अकाल के समय पानी के संकट मोचक बनकर कंठों की पीड़ा हरती थी।
उपयोग में नहीं आने से बदहाल हुई बावड़ियां
उपयोग में नहीं आने से बदहाल हुई बावड़ियां
कचरा पात्र बना दिया : भूलते जा रहे रियासतकालीन जल भंडारों को
नैनवां. रियासतकालीन जल भंडार बावडिय़ों को भूल गए। पूरे कस्बे की प्यास बुझाने वाली बावड़ियां बदहाल पड़ी है। कस्बे की गढ की बावड़ी व शम्भूबाग की बावड़ी पूरे कस्बे की प्यास बुझाती थी। भीषण अकाल के समय पानी के संकट मोचक बनकर कंठों की पीड़ा हरती थी। रियासतकालीन इन परम्परागत जलसा्रेतों को लोगों ने ही कचरा पात्र बना डाला है। संरक्षण नहीं मिला तो नैनवां के तालाब की पाल पर स्थित पांच सौ वर्ष पुरानी बावड़ी तो डेढ़ दशक पूर्व ही तीन दिसम्बर 2005 को ही तालाब में समा चुकी है। अब बावड़ी के नामोनिशान के नाम पर मिट्टïी का एक टीला ही अवशेष के रूप में रह गया है। जब भी पानी का संकट आया तो यह बावड़ी ही पानी का सहारा बनती थी। नैनवां को बसाने वाले किलेदार नाहर खानसिंह ने तालाब सूखने पर लोगों के नहाने की सुविधा के लिए गढ़पोल दरवाजे के पास कनकसागर के किनारे तथा चौपरज्या में नवलसागर के किनारे कुण्डों का भी निर्माण कराया था। पांच सदी पुराने इन कुण्डों को भी संरक्षण नहीं मिल पाया। दोनों ही कुण्डों की आधी से ज्यादा सीढिय़ां तो कचरे से अटी पड़ी है। संरक्षण नहीं मिला तो नैनवां के तालाब की पाल पर स्थित पांच सौ वर्ष पुरानी बावड़ी तालाब में समा चुकी है। अब बावड़ी के नामोनिशान के नाम पर मिट्टïी का एक टीला ही अवशेष के रूप में रह गया है। तालाब के सूखने पर बावड़ी लबालब रहती थी। अब पानी का संकट होने लगा है तो लोगों को यह बावड़ी याद आने लगी है।
गढ़ की बावड़ी
मीठा पानी होने के बाद भी कचरा डालकर दूषित कर दिया। जबकि जब-जब भी पानी का संकट हुआ यहीं बावड़ी संकट मोचक बना करती थी।
कभी पूरे कस्बे की प्यास बुझाने वाली रियासतकालीन गढ़ की बावड़ी को संवारने के बजाय कचरा पात्र बना डाला। बावड़ी दो दशक पूर्व तक आधे कस्बे का पनघट हुआ करती थी। आज भी इसमें अथाह पानी है। जब से जलप्रदाय योजना शुरू हुई और लोग नलों पर निर्भर हो गए। उसके बाद तो कूड़ादान बनाकर मीठे पानी भी प्रदूषित कर डाला। 1965 में नैनवां में जलप्रदाय योजना स्वीकृत हुई थी। तब तक आधा कस्बा इसी बावड़ी से प्यास बुझाया करता था। बीस वर्ष तक कस्बे की प्यास बुझाने के बाद 1985 से नैनवां को पाईबालापुरा पेयजल योजना से जलापूर्ति होने लगी तो बावड़ी की सुध लेना ही छोड़ दिया। बावड़ी में धीरे-धीरे मलबा भरता जा रहा है। जिसको निकालने वाला कोई नहीं है। अब पनघट की चहल-पहल की जगह बावड़ी में कबूतरों की गुटर-गूं ही सुनाई देती है।
बाग की बावड़ी
शम्भू बाग में स्थित बावड़ी को भी संरक्षण की दरकार है। पांच सदी पुरानी बाग की बावड़ी को भी संरक्षण नहीं मिल पाया। बावड़ी से जलदाय विभाग दो दशक तक कस्बे में जलापूर्ति करता था। जब से नलकूपों का जमाना आया तो जलदाय विभाग ने बावड़ी का पानी लेना बंद कर दिया। उस दिन से ही बाग की बावड़ी भी बदहाल होती चली गई।