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बैंकों से कंपनियों के लोन में 60 फीसदी की कमी, आर्थिक रिकवरी की उम्मीद धराशायी

नोटबंदी के बाद बैंकों के पास पैसे की भरमार है। उम्मीद थी कि इन पैसों का उपयोग अब उत्पादक कार्यों और सेक्टर के लिए होगा। इससे बिजनेस एक्टिविटी बढ़ेगी और रोजगार के अवसर निकलेंगे। 

Jan 13, 2017 / 09:47 pm

आलोक कुमार

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नई दिल्ली. नोटबंदी के बाद बैंकों के पास पैसे की भरमार है। उम्मीद थी कि इन पैसों का उपयोग अब उत्पादक कार्यों और सेक्टर के लिए होगा। इससे बिजनेस एक्टिविटी बढ़ेगी और रोजगार के अवसर निकलेंगे। लेकिन ऐसा कुछ संभव नहीं दिख रहा है। बैंकों के बढ़ते बैड लोन (एनपीए) और सुस्त आर्थिक विकास के कारण पिछले ६ महीनों में कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा लिया जाने वाला लोन आधा हो गया है। नोटबंदी से इसमें और कमी का अंदेशा है, क्योंकि मूल्य के अनुसार ८६ फीसदी करेंसी चलन से बाहर हो गई और उतनी मात्रा में अभी तक नई करेंसी आ नहीं पाई है। हालिया आए तमाम सेक्टर्स के कमजोर नतीजे भी इस बात की तस्दीक करते हैं। १६ वर्षों में ऑटोमोबाइल कंपनियों में डीलर्स को हो रही डिलिवरी में सबसे अधिक गिरावट हुई है। मीडिया खबरों के अनुसार घरों की बिक्री ६ साल के निचले स्तर पर पहुंच गई है। इसी तरह, २०१६-१७ के पहले ८ महीनों के दौरान इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनियों को बैंकों से मिलने वाले लोन में लगातार कमी आ रही है। नवंबर में इसमें ६.७ फीसदी का संकुचन आया। ऐसे में बैंकिंग सिस्टम में वापस आए १२.४४ लाख करोड़ रुपए को कॉरपोरेट सेक्टर लोन के रूप में लेकर उसका उत्पादक कार्यों में करेंगे, इस पर गंभीर संदेह है।

क्या हो रहा है फंड का

अर्थशास्त्री डॉ संतोष मेहरोत्रा ने कहा कि बैंकों के पास जमा रकम का उपयोग तभी हो सकता है जब ब्याज दरों में बड़ी कटौती हो। कुछ बैंकों द्वारा बड़ी कटौती के बाद संभावना बन रही है कि लोन की मांग बढ़ेगी। लोन की मांग बढऩे से आर्थिक क्रियाकलापों के बढऩे के साथ ही बैंकों का लाभ भी बढ़ेगा। हालांकि यह सबकुछ इतनी जल्द संभव नहीं है। उनके अनुसार, महज ब्याज दरें कम होने से इसमें अपेक्षित इजाफा नहीं होगा, बल्कि इसके लिए सेंटिमेंट भी बेहतर होना चाहिए। बैंकों के डिपोजिट बढऩे का लंबे समय में ही लाभ सामने आ पाएगा।

विनिर्माण सेक्टर सबसे अधिक प्रभावित

बैंकों में डिपोजिट बढऩे के बाद भले ही सरकार लेंडिंग यानी लोन देने की प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है। लेकिन बैंकों से मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज को मिलने वाले क्रेडिट या लोन में ६० फीसदी की कमी आई है। आरबीआई आंकड़ों के अनुसार, पिछले ६ वर्षों में यह ४.७ लाख करोड़ से कम होकर १.९ लाख करोड़ रुपए हो गया है। कुल कॉरपोरेट लोन में लगभग ६५ फीसदी योगदान करने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर सबसे अधिक ७७ फीसदी की कमी के साथ २०११ के ३१ मार्च के आखिर के ३.१ लाख करोड़ रुपए से कम होकर २०१६ के ३१ मार्च को सिर्फ ७२,४५४ करोड़ रुपए रह गया। ६९ फीसदी के साथ सबसे अधिक कमी बड़ी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स के लोन में आई है।

सर्विस सेक्टर में 46 फीसदी की कमी

सर्विस सेक्टर द्वारा लिए जाने वाले लोन में भी बड़ी कमी आई है। २०११ के ३१ मार्च को १.६२ लाख करोड़ रुपए का लोन इस सेक्टर के नाम था, जो २०१५ के ३१ मार्च को ८७,६८९ करोड़ रुपए हो गया। इस तरह इसमें ४६ फीसदी की कमी दर्ज किया गया। हालांकि पिछले वित्त वर्ष की तुलना में इसमें थोड़ा इजाफा हुआ और २०१६ के मार्च में यह बढक़र १.१ लाख करोड़ रुपए हो गया। परिवहन और नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल सेक्टर के लोन में ६ वर्षों में ५६ फीसदी से अधिक की कमी आई है।

कंपनियों के पास कितना है लोन

आरबीआई आंकड़ों के अनुसार, २०१६ के ३१ मार्च तक कॉरपोरेट कंपनियों के पास बैंकों का कुल मिलाकर लगभग ४२ लाख करोड़ रुपए का लोन है। यह देश की कुल जीडीपी का लगभग ३० फीसदी है।

लोन में कमी के क्या हैं कारण

बैंकों से कंपनियों को दिए जाने वाले लोन में इस बड़ी गिरावट की एक बड़ी वजह बढ़ रहा एनपीए है। इससे कुछ महीनों पहले तक बैंक भी लोन देने में अधिक दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। आरबीआई ने खुद स्वीकार किया है कि बैंकों की एसेट क्वालिटी, प्रॉफिट और लिक्विडिटी में लगातार कमी आने से बैंकिंग सेक्टर के समक्ष कई जोखिम हैं। इसके अलावा, आर्थिक क्रियाकलापों में सुस्ती के कारण मांग में कमी और वर्तमान औद्योगिक क्षमता में एक तरह का ठहराव भी इसके कारण हैं। निजी और सरकारी बैंकों का कुल एनपीए २०१६ के मार्च में लगभग ६ लाख करोड़ रुपए था। एनपीए बढऩे से बैंकों की पूंजी पर संकट गहराता है।

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