आचार्य ने कहा आगम में आचार्यों की आठ संपदाएं बताई गई हैं, इनमें पहली संपदा है-आचार संपदा। आचार्य का आचार निर्मल होना चाहिए। उनमें संयम होना चाहिए। समिति-गुप्तियों के प्रति जागरूक रहना चाहिए। आचार्य जितने संयमी व आचार में निर्मल होते हैं, उनकी छाया पड़ती रहती है। साधु-संत और लोग उनकी आचार, संयम आदि से प्रेरणा लेकर स्वयं के जीवन में उसे उतारने का प्रयास करते हैं। आचार्य का आचार समृद्ध होना चाहिए। इन्द्रियों का संयम, वाणी का संयम, खान-पान का संयम उत्कृष्ट रूप में हो।
आचार्य में श्रुत संपदा भी होनी चाहिए। उनको शास्त्रों अच्छा ज्ञान होता है तो वे अच्छा व्याख्यान देते हैं, लोगों को प्रेरणा दे सकते हैं, अच्छी वाचना देने वाले हो सकते हैं। लोगों के प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं।
आचार्य स्वयं भी अध्ययनशील हों। आचार्य के पास शरीर संपदा भी होनी चाहिए। उनका शरीर स्वस्थ होगा तो वे कोई भी कार्य कर सकने में सक्षम होंगे। शरीर सक्षम व अच्छा हो, इन्द्रियों की स्वस्थता हो।
उनमें वचन संपदा भी होनी चाहिए। आचार्य नियमित प्रवचन के माध्यम से लोगों को प्रेरित करें, उन्हें सन्मार्ग दिखाएं। आचार्य जो आदेश-निर्देश दें, वह लोगों के लिए मान्य हो, उनकी वाणी प्रभावशाली हो एवं उनकी भाषा में शिष्टता और मधुरता हो।
इसी प्रकार आचार्य में वचन संपदा भी होनी चाहिए ताकि वे अपने शिष्यों को पढ़ा सकें, उन्हें वाचना दे सकें। वैसे शिष्य तो और भी संतों से पढ़ सकते हैं, किन्तु आचार्य से प्राप्त हुआ ज्ञान एक तरह से प्रमाण हो सकता है। आचार्य में पढ़ाने व समझाने तथा अध्यापन की कला होनी चाहिए। वे पढ़ाने में कुशल होंगे तो धर्मसंघ के अन्य संतों की ज्ञानाराधना भी अच्छी व उत्कृष्ट बन सकती है।
आचार्य में मति संपदा होना भी जरूरी है। उनमें बुद्धि की क्षमता हो। किस समय क्या करना और कैसा निर्णय लेना, ऐसी उनमें स्वयं में बुद्धि का विकास होना चाहिए। उनमें बौद्धिक विकास होगा तो समाज और धर्मसंघ का कुशल संचालन हो सकेगा। आचार्य में प्रयोग संपदा हो तो कभी शास्त्रार्थ आदि भी कर सकते हैं। अपने तर्कों से लोगों के समक्ष शास्त्र सम्मत बात को विशेष रूप से रख सकते हैं। उनमें संग्रह परिग्रह संपदा हो। उनमें संघ की व्यवस्था का कौशल होने के साथ ही साधु-साध्वियों की संभाल में उनकी निपुणता होनी चाहिए। एक आचार्य में यदि ये आठ संपदाएं होती हैं तो वे कुशल नेतृत्व करता हो सकते हैं।
आचार्य ने तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालूगणी के पदाभिषेक दिवस के अवसर पर उनका स्मरण करते हुए उनके जीवनवृत्त को व्याख्यायित किया।
उन्होंने उनका श्रद्धा के साथ स्मरण करते हुए उनको नमन, वंदन किया और लोगों को उनके जीवनवृत्त से प्रेरणा लेने के लिए अभिप्रेरित किया। उन्होंने कहा आचार्य कालूगणी मेंं मानो आचार्यों की सभी संपदाओं में से श्रुत संपदा बहुत अधिक थी। वे आचार्य बनने के बाद भी स्वयं सीखते थे औरों को भी सिखाते थे। इस मौके पर चेन्नई चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के डॉ. प्रवीण भण्डारी ने विचार व्यक्त किए।