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ज्ञान के साथ जुड़ें चेतना के तार

locationचेन्नईPublished: Nov 19, 2018 10:56:47 pm

माधवरम स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के ग्यारहवें श्लोक के पहले भाग का विवेचन करते हुए आचार्य महाश्रमण ने कहा कि उपयोग जीव का लक्षण है। जिसमें चेतना का व्यापार और प्रवृत्ति है वह उपयोग है। ज्ञान, दर्शन और अपेक्षा से अज्ञान चेतना का व्यापार होता है।

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चेन्नई।माधवरम स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के ग्यारहवें श्लोक के पहले भाग का विवेचन करते हुए आचार्य महाश्रमण ने कहा कि उपयोग जीव का लक्षण है। जिसमें चेतना का व्यापार और प्रवृत्ति है वह उपयोग है। ज्ञान, दर्शन और अपेक्षा से अज्ञान चेतना का व्यापार होता है।

आचार्य ने कहा, पच्चीस बोल में नौवां बोल है, उपयोग बारह। उनमें पांच ज्ञान में से मतिज्ञान को आभी निबोदिक ज्ञान भी कहा जाता है। पिछले जन्म या जन्मों का ज्ञान (जाति स्मृति ज्ञान) भी मति ज्ञान का अवयव है। संसार के जितने भी जीव हैं, उनमें पांच ज्ञान या तीन अज्ञान में से कोई अवश्य होगा। हमारी आत्मा में जितना कर्मों का क्षयोपक्षम होता है, ज्ञानावरणीय आदि ज्ञाति कर्मों का क्षयोपक्षम होता है तो पूरी आत्मा ज्ञानमय हो जाती है, वह हमारा केवलज्ञान हो जाता है। यह एक ज्ञान का विषय है। उन्होंने कहा वर्तमान में हमारे पास केवलज्ञान तो प्रकट है ही नहीं और अवधिज्ञान किसी- किसी के पास, कभी हो भी सकता हैं, अनुमान के अनुसार भिक्षु स्वामी को संभवत: अवधिज्ञान का अंश हुआ हो सकता है। संथारा हो, परिणाम अच्छा हो, तो श्रावक या साधु को अवधिज्ञान हो सकता है।

जाति स्मृति ज्ञान, पूर्वजन्म का ज्ञान भी हो सकता है। आचार्य ने कहा वर्तमान में हमारे लिए श्रुत ज्ञान जरूरी है। स्वाध्याय, शास्त्र पठन, प्रवचन आदि सुनने, चिन्तन-मनन से हम अपने श्रुत ज्ञान का विकास कर सकते हैं। ग्रन्थों को पढऩे से हमारी भीतर की चेतना जागृत होती है, एक लक्ष्य बनता है, उस ज्ञान के प्रति कुछ समर्पण का भाव होता है, तो हमारा श्रुत ज्ञान समृद्ध हो सकता है, वृद्धिगत हो सकता हैं और कुछ नई नई बातें ध्यान में आ सकती हैं। जब हमारा श्रुत ज्ञान के प्रति समर्पण हो जाए, चेतना का तार ज्ञान के साथ जुड़ जाए। ज्यादा पढेंगे, गहराई में मनन होगा, अनुप्रेक्षा होगी, तो हमारा ज्ञान और ज्यादा स्पष्ट हो सकेगा।

तप से होती है कर्म निर्जरा

यहां जैन स्थानक में विराजित आचार्य विजयमुनि ने तपस्या की महिमा बताते हुए कहा कि जैसे नाव में छेद होने पर वह डूबने लगती है और छेद बंद करने पर पानी तो नहीं आता पर नाव में पुराना पानी तो रहता ही है, ऐसे ही संवर करने सेे कर्म बंध तो हो जाता है पर पुराने कर्मों की निर्जरा नहीं होती इसलि उनकी निर्जरा के लिए तप आवश्यक है । तप दो प्रकार का होता है-बाह्य तप और अभयन्तर तप। तप के और भी भेद बताए गए है। अनशन तप से प्रायश्चित होता है। उन्नोदरी तप से विनय भाव आता है। रस परित्याग करने से स्वाध्याय होता है। इच्छाएं कम करने से बड़ों की सेवा का भाव आता है। ध्यान करने के लिए काया क्लेश तप जरूरी है। संघ के मंत्री विमलचंद सांखला ने बताया कि 12 अक्टूबर को आचार्य विजयराज की 60वीं जन्म जयंती मनाई जाएगी।

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