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पहले अपनी मंजिल तय करें फिर रास्ते

locationचेन्नईPublished: Sep 10, 2018 12:46:35 pm

Submitted by:

Ritesh Ranjan

पुरुषवाक्कम स्थित एमकेएम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा गति ही संसार का नियम है लेकिन जीव की प्रगति तभी हो सकती है जब वह चाहेगा। कोई जीव कैसे प्रगति कर सकता है? कई जीवों को बहुत परिश्रम के बाद भी प्रगति नहीं कर पाते।

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पहले अपनी मंजिल तय करें फिर रास्ते

चेन्नई. पुरुषवाक्कम स्थित एमकेएम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा गति ही संसार का नियम है लेकिन जीव की प्रगति तभी हो सकती है जब वह चाहेगा। कोई जीव कैसे प्रगति कर सकता है? कई जीवों को बहुत परिश्रम के बाद भी प्रगति नहीं कर पाते।
गति अधो भी हो सकती है और ऊध्र्व भी, यह जीव की इच्छा पर निर्भर करता है। प्रगति का पहला रहस्य है- तुम्हारा लक्ष्य, ध्येय और कामना क्या है। जिसे अपनी मंजिल नजर आए उसे परमात्मा श्रद्धाशील कहते हैं। अपनी मंजिल चुनें और फिर उसे प्राप्त करने की तैयारी शुरू करें। अपने रास्ते नहीं मंजिल तय करें। बिना मंजिल के रास्तों पर चलेंगे तो भटकते ही रह जाएंगे।
तपस्या करने के बाद भी समाधि का जागरण नहीं हो पाता, पूर्णता व लक्ष्यपूर्ति नहीं हो पाती इसका एकमात्र कारण है कि हमने साधनों को साध्य बना दिया है। युद्ध को भी कला बनाया जा सकता है। इसके लिए स्वयं को कलाकार बनना पड़ता है।
अपने इस मनुष्य जीवन को यंू ही नष्ट न कर इसका सदुपयोग करें और धर्म के शिखर को छुएं। अपना नजरिया और लक्ष्य स्पष्ट रखें। जिस व्यक्ति का लक्ष्य और चुनाव जैसा होगा उसे वैसे ही अवसर और परिस्थितियां मिलेगा।
पर्यूषण के इस अनमोल समय में अपने जीव को ऊंचाई पर ले जाएं, अपने गुरु, देव, धन, परिवार, संपत्ति, शरीर को साधन बनाकर स्वयं का सामथ्र्य जगाएं और अपना उद्देश्य प्राप्त करने में ईमानदारी और उत्साह से जुट जाएं, अपने कदमों की गति रुकने न दें तो आपकी प्रगति निश्चित और अवश्यंभावी है। परमात्मा का कहना है कि सबसे पहले अपनी मंजिल तय करें। उसे प्राप्त करने तक अपना उत्साह और उल्लासा बनाए रखें, उसे कम न होने दें। कभी यह न सोचें कि इस भव में ठोकर नहीं लगेगी इसलिए स्वयं की सजगता से कदम रखें। अपना दृष्टिकोण और आचरण श्रद्धा, आस्था और भक्ति का बनाएं कि उसे देखकर दूसरों को भी परमात्मा की भक्ति करने का मन हो जाए, भावना हो जाए।
तीर्थेशऋषि ने अंतगड़ श्रुतदेव के वाचन में बताया कि गजसुकुमार द्वारा अरिष्टनेमी से दीक्षा ग्रहण करने और तपस्या पर अटल रहते हुए सौमिल द्वारा दिए गए कष्टों में भी तप नहीं छोड़ते। उनमें अन्तर की शक्ति का जागरण होने पर शुक्लध्यान करते हुए कर्मक्षय कर वे शुद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं।
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