आदमी के पास खुद का ज्ञान होना चाहिए, अपने ज्ञान का कहीं ज्यादा महत्व होता है। उसे स्वयं के ज्ञान का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में स्वयं की आंख की तरह अपने ज्ञान का भी महत्व है। विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में लौकिक ज्ञान के साथ ही आध्यात्मिक ज्ञान भी दिया जाए तो विद्यार्थियों का अच्छा विकास हो सकता है। आदमी के जीवन में जब ज्ञान का विकास होता है सम्यक् आचार भी हो सकता है और आत्मोत्थान की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
अज्ञान अपने आप में दु:ख और कष्ट है इसलिए आदमी को ज्ञान का विकास करने का प्रयास करना चाहिए जिससे आदमी राग से वीराग की ओर जा सके और मैत्रीपूर्ण चेतना बन सके। सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् आचार का भी उतना ही लाभ नहीं प्राप्त हो सकता है। आचार्य भिक्षु ज्ञानीपुरुष थे। उन्होंने अपने ज्ञान से कितनों को आलोकित किया था।
उन्होंने अहिंसा यात्रा के तीना उद्देश्यों को बताया और उन्हें इसके तीनों संकल्पों को स्वीकार करने का आह्वान किया जिसे लोगों ने सहर्ष स्वीकार किया। अम्बत्तूर से जन्मी समणी शशिप्रज्ञा ने आचार्य के समक्ष अपनी श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति दी। अम्बत्तूर महिला मण्डल ने गीत पेश किया।
अम्बत्तूर तेरापंथ समाज के अध्यक्ष आनंद समदडिय़ा, मंत्री राकेश बैद, एस.एस. जैन संघ के मंत्री गौतम गादिया, कांता सिंघी व बालिका खुशी बोहरा ने विचार व्यक्त किए। अम्बत्तूर ज्ञानाशाला के ज्ञानार्थियों ने भी प्रस्तुति दी।
धर्म से मिलने चलोगे तो अवश्य मिलेगा
उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने किलपाक में शांतिलाल मनोजकुमार मूथा के निवास पर प्रवचन में कहा जीवन में कभी प्रतिकूलताओं से परेशान होंगे तो आर्तध्यान शुरू हो जाएगा और धर्मध्यान छूट जाएगा। आसन छोड़ सकते हैं लेकिन धर्म ध्यान छूटना नहीं चाहिए। हर व्यक्ति चाहता कि उनका रिश्ता सर्वसमर्थ प्रभु के साथ जुड़ें, लेकिन वे प्रयास नहीं कर पाते और जुड़ नहीं पाते।
परमात्मा ने उत्तराध्यन में कहा है यह संसार इंद्रियों से देखा, सुना, लिया और छोड़ा जा सकता है इसलिए यह सरल लगता है लेकिन परमात्मा ऐसे नहीं हैं, इसलिए उनसे जुडऩा व्यक्ति को सरल नहीं लगता। जैसे-जैसे साधना में बढ़ेंगे अनुभव होगा कि संसार दिखता सभी को है लेकिन मिलता किसी को नहीं। धर्म किसी को दिखता नहीं है लेकिन मिलने के लिए चलोगे तो अवश्य मिलता है।
अनादिकाल से कषायों में ही अपनी सारी ऊर्जा लगी हुई है। सभी को संसार रूपी सर्प का दंश लगा हुआ है, जिससे कषाय मीठा और प्रवचन कड़वा लगता है। जहां एनर्जी लगी होगी उसी में आपको आनन्द मिलता है। यह जीव सत्ता हाथ से छूट रही है, सांस टूटने वाली है लेकिन फिर भी परमात्मा में रस ले नहीं पाता।
परमात्मा से जुडऩे के लिए जो दिखता नहीं वह देखना पड़ता है। भगवान महावीर विराजमान हैं लेकिन गोशालक को भगवान नहीं बल्कि अपना प्रतियोगी दिखते हैं और इंद्रभूति को परमात्मा की चेतना दिखती है। भगवान की चेतना को जो देख लेता है वह परमात्मा से जुड़ पाता है।
जो दिखता है उसकी व्यर्थता और अनर्थता समस्याएं खड़ी करता है। जो मैं जी रहा हंू वह जिन्दगी को जलाकर बनी हुई राख है, यह जिसे महसूस हो जाए वही नया रास्ता खोज पाता है और जिसे न हो वह प्रभु की तरफ नजर उठाकर ही नहीं देखता है।
इस शरीर में जब तक चैतन्य देव है यह तन परमात्मा का मंदिर है। जब चेतना निकल जाए तो यही तन गंदा हो जाएगा। औदारिक शरीर की एक ही गति है कि चेतना निकल जाए तो असंख्य जीव उत्पन्न होकर सडऩे लग जाता है। इससे पहले इसे संभाल लें, आगे की यात्रा कर लें। यह मल और पंक से बने शरीर से अपना उद्धार कर लो, दिव्य शरीर प्राप्त कर लो या शरीर से मुक्त हो जाओ। यह तभी होगा जब, जो दिखता है वह मिलता नहीं है, इस सत्य को स्वीकार कर पाओ। तीर्थेशऋषि महाराज ने गीत पेश किया और उड़ान टीम को स्फटिक माला भेंट की।