आचार्य महाश्रमण ने कहा कि विद्या संस्थानों में अध्यात्म विद्या का भी प्रभाव रहे, मन दुनिया में सबसे गतिशील होता है। सद्विचारों व कल्याणकारी संकल्प से मन सुमन संज्ञा वाला बन सकता है, तो बुरे विचारों से मन दुर्मन संज्ञा वाला बन जाता है। मन से आदमी दुखी, परेशान भी हो जाता है, तो अच्छे विचार से सुखी भी बन जाता है। मन प्रमत्त बनता है तो पर्वत के शिखर की तरह दुखी बन जाता है और मन वश में रहता है तो सुखी बन सकते हैं। प्रेक्षाध्यान पद्धति में एक प्रयोग आता है, भाव क्रिया। हमारा मन जो हम कार्य कर रहे हैं उसी में संलग्न रहे। अनावश्यक विषयों में न लगे। जैसे चलते समय ध्यान मात्र चलने पर रहे, न गीत गाएं, न पुस्तक पढं़े। अन्य कोई भी कार्य जैसे खाना, पीना, पढ़ाई करना या भाव क्रिया से मन चंचल नहीं होता। हम प्रेक्षाध्यान की साधना से मन की गति को कम कर सकते हैं। मन की एकाग्रता के लिए शरीर की स्थिरता जरूरी है। मन में सबके प्रति मंगलकामना व पवित्र भावना हो, तो हम भी पवित्र बने रह सकते हैं। झूठ, चोरी से बच कर ईमानदारी के पथ पर चलें। उन्होंने लड़ाई, झगड़ा, हिंसा, बुरी भावना से बच कर सद्भावमय जीवन जीने का संदेश दिया। मुनि अनेकांतकुमार ने अहिंसा यात्रा की जानकारी देते हुए त्रिसूत्र के बारे में बताया। विद्यालय के चेयरमैन वैल्लमै ने स्वागत भाषण दिया। मुख्य अतिथि तिरुपति आश्रम प्रेमा पाडुरंग ने कहा लोगों का भटकाव कम करने के लिए ही साधु संत विचरण करते हैं। संत अपने पुण्य को हममें बांट देते हैं और भगवान की वाणी हमें सुनाते हैं। इस अवसर पर जीया-लुपुद सोलंकी, सुनीता व धरमचन्द सोलंकी ने विचार प्रस्तुत किए। मुख्य अतिथि को आचार्य के साहित्य का तमिल संस्करण प्रदान किया गया।