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अपनी प्रसन्नता के मालिक खुद बनें

locationचेन्नईPublished: Oct 26, 2018 12:18:02 pm

Submitted by:

Ritesh Ranjan

आचार्य महाश्रमण ने कहा एक शब्द है – प्रसाद। प्रसाद यानी प्रसन्नता। हमें गुरु के प्रसाद की इच्छा रखनी चाहिए।

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अपनी प्रसन्नता के मालिक खुद बनें

चेन्नई. माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा एक शब्द है – प्रसाद। प्रसाद यानी प्रसन्नता। हमें गुरु के प्रसाद की इच्छा रखनी चाहिए। गुरु की प्रसन्नता शिष्यों पर बनी रहे, शिष्य ऐसी कामना करें। प्रसाद के तीन प्रकार बताए गए हैं -देह प्रसाद, मन: प्रसाद और दृष्टि प्रसाद।
उन्होंने कहा देह यानी शरीर की प्रसन्नता। प्रसन्नता का एक अर्थ है -निर्मलता। जो अच्छा, स्वच्छ, निर्मल है वह है प्रसन्न। हमारे शरीर की स्वस्थता बनी रहे। हम साबुन से शरीर की ऊपरी गंदगी दूर करते हैं, यह ऊपरी निर्मलता है पर इससे ज्यादा मूल्य अन्दर की निर्मलता का है। पेट के भीतरी अवयव ठीक हो, पेट साफ रहे, स्वस्थ रहे, तो चित्त निर्मल रहता है। मल-मूत्र का समय पर विसर्जन होना चाहिए। पेट की निर्मलता के लिए भोजन समय पर हो। खाना रसना का स्वाद के लिए न खायें। रसना को जीतने से, भोजन का संयम करने से, शरीर निर्मल रहता है देह में प्रसन्नता रह सकती है।
दुसरा प्रसाद है मन का प्रसाद। जीवन में शारीरिक स्वस्थता का महत्व है ही, चित्त समाधि में रहे, प्रसन्नता में रहे, तो जरूरी है मन की प्रसन्नता बनी रहे। जब गुस्सा ज्यादा आता है, तो मन अशांत हो जाता है व्यक्ति को गुस्सा नहीं करना चाहिए। जीवन में शांति रखें, धैर्य रखें, आवेश में न आएं गुस्सा आदमी की कमजोरी है, गुस्से से वह अपने आपसे हार जाता है। मन: प्रसाद के लिए अपेक्षित है कि गुस्सा न करें, अपराध न करें, दोषों से बचें। चोरी से भी तनाव आ जाता है। गलती करके छिपायेंगे तो मन अशांत रहेगा। मन: प्रसाद के लिए निरपराध रहें, मानसिक शांति के लिए अतिक्रमण से बचना चाहिए। मंत्र जप करे, दूसरों का हित करेंगे तो स्वयं का मंगल हो जायेगा। जीवन में समता आती है तो मन की प्रसन्नता बढ़ सकती है।
तीसरा प्रसाद है-दृष्टिकोण सम रहना। आग्रहशील, दुराग्रहशील न हो। यथार्थ का आकाश है तो उडऩे के लिए अनाग्रह के पंख चाहिए। आग्रहमुक्त दृष्टिकोण से यथार्थ का साक्षात्कार हो सकता है। एक खुशी, स्थिति सापेक्ष है इच्छित वस्तु मिल गई, खुशी हो गई, दूसरी है आत्म सापेक्ष। जैसे कुंड का पानी नल से, नाले से आता है, तो मिलेगा, पर कुएं का पानी भीतर से आने वाला है, वह आत्मोथ प्रसन्नता होती है। हम आत्मोथ प्रसन्न रहने का प्रयास करें। बाह्य समस्या अलग है, मानसिक दु:ख अलग। समस्या होने पर भी मानसिक दु:खी न हों। निर्जरा से मिलने वाला सुख अलग है, वह भीतरी सुख है। पदार्थ सापेक्ष सुख अलग है, उसमें प्रतिबंध नहीं है, पर हम आत्म सापेक्ष सुख की ओर अग्रसर हों। हमारी प्रसन्नता के मालिक हम खुद बनें, पदार्थ या दूसरों के सहयोग में ही प्रसन्न न रहें, उनके भरोसे न रहें तो जीवन की उपलब्धि है प्रसाद की प्राप्ति। हम साधना से चित्त समाधि व प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करें।
मासिक समणी प्रशिक्षण सत्र के उद्घाटन पर समणी समुदाय को विशेष प्रेरणा देते हुए आचार्य ने कहा यह उपासना का अवसर है, खुराक का समय है, अच्छा प्रशिक्षण चले। आचार्य ने विशेष प्रशिक्षण के लिए मंगल पाठ सुनाया। समणीवृंद ने गीतिका प्रस्तुत की।
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