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इन्द्रियों का करे संयम

locationचेन्नईPublished: Oct 12, 2018 03:04:37 pm

Submitted by:

Ritesh Ranjan

महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा इन्द्रियों एवं अनिन्द्रिय की अपेक्षा से सर्व जीवों के छह प्रकार हैं- पच्चीस बोल में चौथा बोल हैं इन्द्रियां पांच, कान, चक्षु आदि जीव के ज्ञान के माध्यम बनते हैं।

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इन्द्रियों का करे संयम

चेन्नई. माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा इन्द्रियों एवं अनिन्द्रिय की अपेक्षा से सर्व जीवों के छह प्रकार हैं- पच्चीस बोल में चौथा बोल हैं इन्द्रियां पांच, कान, चक्षु आदि जीव के ज्ञान के माध्यम बनते हैं। अत: इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय भी कहा जाता हैं। हमारे जीवन में इन्द्रियों का महत्वपूर्ण स्थान हैं। इन्द्रियां जब तक सक्षम हैं तो शरीर सक्षम है और इन्द्रियों में क्षीणता आ जाती हैं व कमजोरी पड़ जाती हैं इसका मतलब शारीरिक सक्षमता में कमी आ गई।
आचार्य ने कहा विकास की दृष्टि से सबसे पहले हैं स्पर्शनेन्द्रिय, त्वचा, जिसका जिसका विषय है स्पर्श। ऐसे अनन्त प्राणी हैं जिनके एक ही स्पर्शनेन्द्रिय है। ये स्थावर जीव कहलाते हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांचों के एक ही इन्द्रिय होती है। संसार के सबसे ज्यादा अविकसित प्राणी एकेन्द्रिय होते हैं।
स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय दो इन्द्रिय वाले प्राणी होते हैं। लट आदि वाले ये ’त्रसजीव सुख प्राप्ति, दुख निवृत्ति के लिए गति करते हैं। प्राणियों में क्रमिक विकास में जिनके पास घ्राणेन्द्रिय, घ्राण की शक्ति होती हैं।
उन्होंंने बताया कि चतुरिन्द्रिय में प्रथम तीन के साथ चौथी चक्षुन्द्रिय भी पाई जाती हैं- मक्खी, मच्छर ये चार इन्द्रियों वाले जीव होते हैं। पांचवें प्रकार के जीव में प्रथम चार इन्द्रियों के साथ पांचवीं श्रोत्रेन्द्रिय, सुनने की क्षमता भी पाई जाती है। ये इन्द्रियों की होने की दृष्टि से सबसे विकसित प्राणी होते हैं। नारकीय, देव, मनुष्य, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय हाथी, घोड़े इत्यादि इसमें आते हैं। सर्व प्राणियों का छठा विभाग है अनिन्द्रिय प्राणियों का।
आचार्य ने कहा इन्द्रिय जगत का विकास भी सीमित विकास हैं। इन्द्रियों से जो पार चला जाए अनिन्द्रिय बन जाए वो महान विकास करने वाला, महान आध्यात्मिक विकास करने वाला बन जाता है। तेरहवें, चौवदहवें गुणस्थान वाले केवलज्ञानी अनिन्द्रिय होते हैं। नाक, कान, आंख होते हुए भी वे अनिन्द्रिय होते हैं।
तात्विक आधार पर ’इन्द्रिया दो प्रकार की होती हैं. द्रव्य इन्द्रियां और भाव इन्द्रियां, द्रव्य इन्द्रियां पौद्गलिक हैं। पुद्गल निष्पन्न हैंं। भाव इन्द्रिया चेतसिक हैं और ये दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपक्षम से निष्पन्न होने वाली होती हैं। क्षयोपक्षयिक भाव जन्य ये हमारी भाव इन्द्रिया होती हैं।
आचार्य ने कहा केवलज्ञानी मनुष्य के क्षयोपक्षम भाव नहीं होता, क्षयोपक्षम का मतलब है थोड़ी सी प्राप्ति, जबकि एक दृष्टि से केवलज्ञानी मनुष्य के पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन, पूर्ण अमोहता, पूर्ण शक्ति प्राप्त हो गई हैं। भाव इन्द्रियां तो एक अपूर्णता की स्थिति में होने वाली निष्पत्ति हैं। केवलज्ञानी मनुष्य तो क्षयिक भाव वाले बन गए उनके क्षयोपक्षम भाव नहीं है। इसलिए उनके भाव इन्द्रियां नहीं होती। वे तो इन्द्रियातीत हो गये हैं। अतीन्द्रिय हो गए हैं। सिद्ध जीव होते हैं। उनके तो शरीर भी नहीं है। तो इन्द्रियां नहीं होती तो सिद्ध भी अनिन्द्रिय की कोटि में आते हैं।
आचार्य के सान्निध्य व श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा के तत्वावधान में 12 से 18 वर्ष के बालक बालिकाओं का अष्ट दिवसीय राष्ट्रीय संस्कार निर्माण शिविर शुरू हुआ। इस मौके पर जितेन्द्र कुमार, महासभा के उपाध्यक्ष ज्ञानचन्द आंचलिया ने विचार व्यक्त किए। चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष धरमचन्द लूंकड़, महामंत्री रमेश बोहरा ध्वजारोहण किया।
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