चेन्नई. सामाजिक न्याय व समता के सिद्धांत पर खड़े द्रविड़ दलों के १९६९ के बाद से अब तक के शासनकाल में भी जातिवाद का दंश अभी भी सक्रिय है। दक्षिणी जिलों में भेदभाव और छुआछूत का गरल आज भी लोगों की जिन्दगी लील रहा है। जबकि १९६८ में तंजावुर में हुए कथित दलित नरसंहार के बाद किए गए उपायों से उम्मीद की जा रही थी कि बड़ा बदलाव होगा। लेकिन जमीनी स्तर पर बड़ा बदलाव देखने में नहीं आया है। उल्लेखनीय है कि आज से ठीक 50 साल पहले तमिलनाडु के संयुक्त तंजावुर जिले के किलवेनमनी गांव में जमींदार के लोगों ने अनुसूचित जाति के 44 लोगों को जिंदा जला दिया गया था। इन लोगों में 20 महिलाएं, 16 बच्चे और 5 बुजुर्ग शामिल थे। घटना के देश के प्रत्येक नागरिक को झकझोर दिया था। 25 दिसंबर, 1968 की रात घटी इस वाकये को याद करते हुए 55 साल के हो चुके सुब्रह्मण्यम वेनमी कुमारन बताते हैं कि उस रात बहुत अंधेरा था, शोर मचा हुआ था और पूरे माहौल पर खौफ का साया था। पांच साल का बच्चा अपनी मां के साथ लडख़ड़ाते हुए घर में घुसा। उसकी मां को चाकू मारा गया था। जबकि इससे जरा पहले उसके पिता को ४० देसी गोलियों से छलनी कर दिया गया था। उन्हें लोग अस्पताल लेकर भागे थे। जबकि गांव के ही 44 लोगों को जिंदा जलाकर मार दिया गया था। वीसीके के महासचिव डी. रविकुमार ने कहा कि नरसंहार के बाद भी राज्य में भूमि सुधार लागू होना बाकी है। समाजसेवी और शोधकर्ता का मानना है कि दलित लोगों को आज भी निर्णय लेना का अधिकार नहीं है। रविकुमार का कहना है कि किसी भी दलित के खिलाफ हुए अत्याचार का न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हुआ है और न ही आरोपी को सजा मिली है। लेखक और स्कॉलर स्टालिन राजंगम ने बताया कि कई सालों से दलितों की स्थिति में बदलाव नहीं आया है। किलवेनमनी की घटना ठीक 50 साल पहले यानी 1968 की स्याह रात को आज भी किलवेनमनी गांव के लोग यादकर कांप उठते हैं। ऐसा इसलिए कि पांच दशक पहले इसी दिन तमिलनाडु के जमीदारों ने बदले की भावना से अनुसूचित जाति के 44 लोगों को जिंदा जला दिया था। जमींदारों ने इस अमानीय कृत्य को सिर्फ इसलिए अंजाम दिया ताकि मजदूरी करने वाले ये अनुसूचित जाति के लोग पर्याप्त वेतन और सामाजिक समानता की मांग न कर सकें। आश्चर्य की बात ये है कि इस घटना में पुलिस ने भी जमींदारों का साथ दिया था। जिन लोगों को जलाकर मार दिया गया उनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। नरसंहार वाला यह छोटा गांव किलवेनमनी अब तमिलनाडु के नागापट्टिनम जिले में आता है। बदले की भावना से जलाया नरसंहार को जमींदारों ने अंजाम इसलिए दिया कि अनुसूचित जाति के ये लोग ज्यादा मजदूरी की मांग कर रहे थे। सीपीआई-एम के नेतृत्व में ये भूमिहीन किसान तत्कालीन संयुक्त तंजावुर जिले के गांव किलवेनमनी में वेतन बढ़ाने के लिए प्रदर्शन कर रहे थे। जिसके चलते जमीदारों को दूसरे गांवों से मजदूर लाने पड़ रहे थे। इन्हीं प्रदर्शनों के दौरान एक झड़प में जमीदारों का एक एजेंट भी मार दिया गया था। इसी मौत के बदले में जमींदारों की ओर से जो प्रतिक्रिया हुई वो नरसंहार के रूप में सामने आई जिसे यादकर आज भी लोग सिहर उठते हैं। इस नरसंहार को लेकर सात वर्षों तक कानूनी वाद अदालत में चला। मुकदमे में जमीदारों को इस घटना में शामिल होने का दोषी पाया गया। 1970 में उनमें से 10 को 10 साल की जेल हुई। जबकि मद्रास हाईकोर्ट ने 1975 में नागापट्टिनम जिला न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए जमींदारों को छोड़ दिया। एक एकड़ जमीन मुआवजा पांच दशक पहले तत्कालीन एआईएडीएमके की सरकार ने परिवारों के पुनर्वास के लिए नरसंहार के 10 साल बाद 1978 में हर परिवार को एक एकड़ जमीन दी थी। जमीन पीडि़त लोगों को मुफ्त में नहीं दी गई थी। हर एकड़ जमीन को 7,200 प्रति एकड़ के लोन पर दिया था जिसके चलते कई परिवार जमीन पर कब्जा नहीं कर सके। गांव के ही रहने वाले और इस मामले के प्रत्यक्षदर्शी यू सेल्वराज बताते हैं कि केवल कृष्णाम्मल जगन्नाथन और उनके ऑर्गनाइजेशन जिसका नाम लैंड फॉर टिलर्स फ्रीडम था के अथक प्रयासों से आज ज्यादातर परिवारों के पास खुद की जमीनें हैं।