scriptकर्मवाद के न्यायालय में कोई भेदभाव नहीं | There is no discrimination in the court of Empiricism | Patrika News

कर्मवाद के न्यायालय में कोई भेदभाव नहीं

locationचेन्नईPublished: Sep 04, 2018 11:21:27 am

भगवान महावीर का जीवन संक्षेप में आयारो और आचारचूला आगम में प्राप्त होता है। उनके पांच कल्याणक हस्तोतर (उत्तरा फाल्गुणी) नक्षत्र में हुए हैं। भगवान का जीव दसवें देवलोक से च्युत होकर देवानन्दा की कुक्षि में स्थित हुआ तब उत्तरा फाल्गुणी नक्षत्र था।

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कर्मवाद के न्यायालय में कोई भेदभाव नहीं

चेन्नई. माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा भगवान महावीर के जीव ने अनन्त भव किये हैं। आगमों में उनके 27 मुख्य भवों का वर्णन मिलता हैं। उनका जीव नीचे में सातवें नरक तक गया, तो कभी चक्रवर्ती, वासुदेव भी बना। कई भवों में कठोर साधना का जीवन भी जीया तो कभी देव गति में भी गया। यह सब तो कर्मवाद का सिद्धांत है। तीर्थंकर बनने वाली आत्मा ने पाप कर्म किया है तो उसे स्वयं भोगना ही पड़ेगा, भुगतान करना ही होगा।
उन्होंने कहा कर्मवाद नीतिपूर्ण न्यायालय है, यह निष्पक्ष है। बड़े से बड़ा कोई भी जीव हो, जिसने पाप कर्म किये हैं, उसे इस न्यायालय में दया नहीं मिलती और निर्दोष को दंड नहीं मिलता। हमारे देश में उच्च न्यायालय है, सर्वोच्च न्यायालय हैं, पर यह सर्वोच्च न्यायालय से भी ऊपर है, इससे कोई दोषी छूट नहीं सकता, दंड मिलता ही है। लोकतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय है, वहां गलती हो सकती है, फैसला रद्द हो सकता है, पर कर्मवाद का निष्पक्ष न्यायालय है, वहां कोई गलती नहीं हो सकती। वकील झूठ सांच करके किसी को छुड़वा सकता हैं, पर कर्मवाद के न्यायालय से कोई छूट नहीं सकता, जिसने जैसे कर्म किये हैं, भोगने ही पड़ेंगे।
आचार्य ने ठाणं सूत्र के दूसरे स्थान के 446वें श्लोक का विवेचन करते हुए कहा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे हैं। भगवान महावीर का जीवन संक्षेप में आयारो और आचारचूला आगम में प्राप्त होता है। उनके पांच कल्याणक हस्तोतर (उत्तरा फाल्गुणी) नक्षत्र में हुए हैं। भगवान का जीव दसवें देवलोक से च्युत होकर देवानन्दा की कुक्षि में स्थित हुआ तब उत्तरा फाल्गुणी नक्षत्र था।
उन्होंने कहा देवता अमर नहीं हो सकते, सर्वार्थ सिद्ध देवलोक के देयताओं का आयुष्य उत्कृष्ट 33 सागरोपम हैं। सातवीं नारकी के जीवों का आयुष्य भी 33 सागरोपम तक का हो सकता है, पर सभी का आयुष्य पूर्ण होता है। जैन श्वेतांबर परम्परा के अनुसार वे देवलोक से च्युत होकर ब्राह्मण कुल में आये, देवेन्द्र ने ज्ञान के द्वारा देखा और चिंतन किया कि तीर्थकर जैसी आत्मा तो क्षत्रिय कुल में ही पैदा होती हैं। देवेन्द्र के निर्देश से हरिणगवेशी देव ने गर्भ का संहरण करके देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशला रानी की कुक्षि में स्थित किया, उस समय भी उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र था। भगवान महावीर के जन्म, दीक्षा एवं कैवल्य ज्ञान के समय भी यही नक्षत्र था।
आचार्य ने कहा महावीर का जीव जब त्रिशला माता के गर्भ में था, तब माता को पीड़ा न हो इसलिए हलन चलन बन्द कर दिया, पर उनकी माता गर्भ के हलन चलन न करने के कारण दुखी हुई। तब मोहानुकंपा के भाव से संकल्प किया कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, मैं दीक्षा नहीं लूंगा। माता पिता के प्रति कितनी संवेदना की भावना। ऐसा उदाहरण इतिहास में श्रवण कुमार का मिलता है। साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा व साध्वी प्रमिला ने भी उद्बोधन दिया।

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