scriptपरिवार के भरण पोषण के लिए अनूसूचित जाति के लोगों को मिली 45 एकड़ जमीन बगैर अनुमति बिकी | 45 acres of land given to Scheduled Castes sale without permission | Patrika News

परिवार के भरण पोषण के लिए अनूसूचित जाति के लोगों को मिली 45 एकड़ जमीन बगैर अनुमति बिकी

locationछतरपुरPublished: Jan 22, 2021 08:06:45 pm

Submitted by:

Dharmendra Singh

, फिर से हुए भूमिहीनवर्ष 1984-85 में अनुसूचित जाति के लोगों को दिए गए थे पट्टे, सरकारी पट्टे वापिस होने का दिया एससी के हितग्राहियों को झांसाभूमिहीन होने की सूरत में पट्टा की जमीन बेचने पर प्रतिबंध, फिर भी बिक गई पट्टे की जमीनें

रजिस्ट्रार ने भी नहीं कराया नियम का पालन

रजिस्ट्रार ने भी नहीं कराया नियम का पालन

छतरपुर। खौंप गांव के अनूसूचित जाति के भूमिहीन लोगों को वर्ष 1984- 85 और वर्ष 1998 से 2004 तक खेती के लिए 75 एकड़ भूमि के बांटे गए पट्टे की जमीन बिना अनुमति के बेच दी गई। अनूसूचित जाति के लोगों को पट्टा वापस हो जाने का भय दिखाकर उनकी जमीनों की औने-पौने दामों पर रजिस्ट्री करा ली गई। ये रजिस्ट्री नियम को ताक पर रख कर बिना कलेक्टर की अनुमति के कराई गई। कानपुर-सागर नेशनल हाइवे के किनारे की इस बेशकीमती जमीन पर अब स्कूल, पेट्रोलपंप और छोटे-छोटे उद्योग चलाए जा रहे हैं। कुछ जमीन में प्लाटिंग भी की जा रही है। वहीं इन भूमियों के पट्टेदार अब मजदूरी करके अपना परिवार पाल रहे हैं।
ये है पूरा मामला
छतरपुर जिला मुख्यालय से सागर-कानपुर नेशनल हाइवे के किनारे बसे गांव खौंप (जिसे पहले देह कहा जाता था) के अनूसूचित जाति के लोगों परिवार पालने के लिए सरकारी जमीनों के पट्टे बांटे गए थे। राजस्व परिपत्र के नियमों और 1984 के राजस्व अधिनियम के संयुक्त मसौदे के अनुसार वर्ष 1984-85 में 21 दलित परिवारों को 45 एकड़ भूमि और वर्ष 1998 से 2005 के बीच 30 एकड़ जमीन मिलाकर कुल 75 एकड़ जमीन के पट्टे दिए गए। सरकार से मिली जमीन पर ये परिवार उरदा, तिली और अरहर की खेती करके अपना परिवार पालते थे। सरकार द्वारा ये पट्टे 10 वर्ष के लिए दिए थे। 10 वर्ष बाद इन पट्टों का नवीनीकरण किया जाना था। लेकिन 10 वर्ष होने के पहले ही नेशनल हाइवे की इन कीमती जमीनों पर पैसों वालों की नजर पड़ी। पैसों वाले लोगों, राजस्व और रजिस्ट्री कार्यालय के सरकारी कर्मचारी और दलालों का गठबंधन बना और पट्टेधारियों को सरकारी जमीन वापस होने का भय दिखाकर उन्हें जमीन बेचने के लिए मजबूर किया गया। इसके बाद इस गठबंधन ने राजस्व अधिनियम को ताक पर रखते हुए कलेक्टर से अनुमति लिए बगैर ही पट्टे की जमीन धीरे-धीरे खरीदना शुरु कर दिया। कुछ वर्षो में पट्टे की सारी जमीन की बिक्री हो गई और अनुसूचित जाति के परिवार एक बार फिर किसान से भूमिहीन मजदूर बनकर रह गए। इन जमीनों पर आज बड़े-बड़े फॉर्म हाउस और अन्य तरह के निर्माण कर लिए गए हैं।
रजिस्ट्रार ने भी नहीं कराया नियम का पालन
पट्टे की जमीन की खरीद फरोख्त करके इस तरह से 21 हरिजन परिवारों को मिली पट्टे की जमीन नियम कायदों को ताक पर रखकर खरीद ली गई। ये परिवार भूमिहीन हो गए। इसकी खबर न तो पटवारी, तहसीलदार और एसडीएम ने ली और न ही रजिस्ट्री करते समय रजिस्ट्रार और रजिस्ट्री ऑफिस के कर्मचारियों ने कलेक्टर की अनुमति की जरुरी शर्त का पालन कराया। खरीददार, सरकारी तंत्र और दलालों के गुट ने राजस्व विभाग से लेकर रजिस्ट्री ऑफिस तक ऐसा जाल बुना कि, सरकारी जमीन की खरीदी सरकारी नियमों को ताक पर रखकर कर ली गई।
इन जमीनों का हुआ घालमेल
छतरपुर तहसील के पटवारी हल्का खौंप में 38 खसरा नंबरों पर दर्ज 45 एकड़ जमीन के पट्टे शासन ने वर्ष 1984-85 में दिए थे। ये पट्टा अनूसूचित जाति के लोग को खेती के लिए दिए गए थे। किसी भी परिवार को 5 एकड़ का पट्टा नहीं मिला था। ज्यादातर लोगों को एक एकड़ से लेकर तीन एकड़ तक जमीन के पट्टे मिले थे। ऐसे में 5 एकड़ से कम जमीन के पट्टे होने के कारण इन जमीनों को बेचने से ये दलित परिवार भूमिहीन बन रहे थे। जबकि नियम के अनुसार भूमिहीन होने की स्थिति में पट्टे की जमीन बेचने की न तो अनुमति मिलेगी और न ही बिक्री होगी। इसके वाबजूद सरकारी तंत्र ने पट्टे की इन जमीनों को नियम कानून ताक पर रखकर बिकने दिया।
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