4.52 लाख लोगों ने मांगा काम
जिले में पिछले साल 4.52 लाख लोगों ने रोजगार की मांग की थी, जिसमें से 3.52 लाख लोगों को रोजगार मिला। कोरोना काल से उबरने के बाद जिला प्रशासन ने 200 दिन का काम गांव में दिलाने के लिए विशेष अभियान चलाया जिसके चलते 78 फीसदी लोगों को काम मिला। लेकिन इस बार मनरेगा को लेकर कोई विशेष सख्ती या अभियान नजर नहीं आ रहा है। जनवरी से लेकर अप्रेल तक पूरे जिले में 93 हजार लोगों ने काम मांगे, जिसमें से केवल 66 हजार लोगों को ही काम मिल पाया है।
जिले में पिछले साल 4.52 लाख लोगों ने रोजगार की मांग की थी, जिसमें से 3.52 लाख लोगों को रोजगार मिला। कोरोना काल से उबरने के बाद जिला प्रशासन ने 200 दिन का काम गांव में दिलाने के लिए विशेष अभियान चलाया जिसके चलते 78 फीसदी लोगों को काम मिला। लेकिन इस बार मनरेगा को लेकर कोई विशेष सख्ती या अभियान नजर नहीं आ रहा है। जनवरी से लेकर अप्रेल तक पूरे जिले में 93 हजार लोगों ने काम मांगे, जिसमें से केवल 66 हजार लोगों को ही काम मिल पाया है।
बकस्वाहा के लोगों ने मांगा सबसे ज्यादा काम
वित्तीय वर्ष की शुरुआत यानि अप्रेल 2022 में पूरे जिले के 24 हजार लोगों ने रोजगार की मांग की, लेकिन अभी तक केवल 14 हजार लोगों को ही रोजगार मिल पाया है। बकस्वाहा ब्लॉक के 3810 लोगों ने रोजगार की मांग की जिसमें से 2706 को ही काम मिला है। वहीं बिजावर के 3633 लोगों के काम मांगने पर 2306 लोग ही रोजगार पा सके हैं। राजनगर ब्लॉक के 3373 लोगों ने काम मांगा ,जिसमें 2330 को ही रोजगार गारंटी मिली है। जबकि नौगांव में 2302 में से मात्र 1153, लवकुशनगर के 2994 में से 1677, गौरिहार के 2014 में से केवल 838 लोग ही काम पा सके हैं। छतरपुर ब्लॉक के 1822 में से 1052 लोग ही रोजगार पा सके हैं।
वित्तीय वर्ष की शुरुआत यानि अप्रेल 2022 में पूरे जिले के 24 हजार लोगों ने रोजगार की मांग की, लेकिन अभी तक केवल 14 हजार लोगों को ही रोजगार मिल पाया है। बकस्वाहा ब्लॉक के 3810 लोगों ने रोजगार की मांग की जिसमें से 2706 को ही काम मिला है। वहीं बिजावर के 3633 लोगों के काम मांगने पर 2306 लोग ही रोजगार पा सके हैं। राजनगर ब्लॉक के 3373 लोगों ने काम मांगा ,जिसमें 2330 को ही रोजगार गारंटी मिली है। जबकि नौगांव में 2302 में से मात्र 1153, लवकुशनगर के 2994 में से 1677, गौरिहार के 2014 में से केवल 838 लोग ही काम पा सके हैं। छतरपुर ब्लॉक के 1822 में से 1052 लोग ही रोजगार पा सके हैं।
गर्मियों में बढ़ा पलायन
गांवों से पलायन रोकने के लिए मानव श्रम को ग्राम विकास में भागीदार बनाने के लिए लागू कई योजनाएं ग्रामीणों को गांव में काम नहीं दिला पाई हैं। जहां भी काम हुए वहां मानव श्रम की बजाए मशीनों से काम कराए गए जिससे स्थिति बिगड़ती चली गई। ऐसे ही लगातार बदतर हो रहे हालातों से जूझते हुए ग्रामीण अपना घर,खेत-खेलिहान छोड़कर शहरों की ओर कूच कर रहे हैं। एक तो मनरेगा में गांव में काम ही नहीं मिलते, यदि काम मिल भी जाए तो भुगतान कम और देर से मिलता है। मजदूरी बकाया होने से मजदूर काम करने की बजाय गांव से बोरिया बिस्तर समेटकर काम-दाम और रोटी के लिए महानगरों की ओर पलायन करना ज्यादा सही समझते हैं। ऐसे तमाम कारणों से गांव में काम व मजदूरी के अभाव में जिले से प्रतिदिन सैकड़ों प्रोढ़ और युवा मजदूर रोजगार की तलाश में कानपुर,दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, हैदराबाद सहित अन्य महानगरों का रुख कर रहे हैं। जहां वे मजदूरी कर अपना व अपने परिवार का पेट पाल सकें।
गांवों से पलायन रोकने के लिए मानव श्रम को ग्राम विकास में भागीदार बनाने के लिए लागू कई योजनाएं ग्रामीणों को गांव में काम नहीं दिला पाई हैं। जहां भी काम हुए वहां मानव श्रम की बजाए मशीनों से काम कराए गए जिससे स्थिति बिगड़ती चली गई। ऐसे ही लगातार बदतर हो रहे हालातों से जूझते हुए ग्रामीण अपना घर,खेत-खेलिहान छोड़कर शहरों की ओर कूच कर रहे हैं। एक तो मनरेगा में गांव में काम ही नहीं मिलते, यदि काम मिल भी जाए तो भुगतान कम और देर से मिलता है। मजदूरी बकाया होने से मजदूर काम करने की बजाय गांव से बोरिया बिस्तर समेटकर काम-दाम और रोटी के लिए महानगरों की ओर पलायन करना ज्यादा सही समझते हैं। ऐसे तमाम कारणों से गांव में काम व मजदूरी के अभाव में जिले से प्रतिदिन सैकड़ों प्रोढ़ और युवा मजदूर रोजगार की तलाश में कानपुर,दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, हैदराबाद सहित अन्य महानगरों का रुख कर रहे हैं। जहां वे मजदूरी कर अपना व अपने परिवार का पेट पाल सकें।
पेट पालने जिले जाना पड़ता है दूसरे गांव
जिले से बड़ी संख्या में मजदूरों के पलायन से जहां मनरेगा की असलियत सामने आ रही है। वहीं ग्रामीण मजदूरों की दुर्दशा की विंताजनक तस्वीर भी दिखाई दे रही है। दिल्ली जा रहे कल्लू आदिवासी ने बताया गांव में कोई काम नहीं है। काम होता भी है तो मजदूरी देर से मिलती है, ऐसे में लोगों से कर्जा लेकर चूल्हा जलाना पड़ता है। कामता प्रसाद का कहना है कि ऐसी योजना किस काम की जो न तो काम दे सके न समय पर मजदूरी। श्यामली ने बताया कि गांव में काम नहीं है। गांव में जो काम होते हैं, वे मशीन से कराए जाते है। कभी-कभी पांच-छह दिन काम मिलता है, तो 25 दिन खाली बैठना पड़ता है। पैसा मिलने में देर होने से परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया, इसीलिए बाहर जा रहे हैं।