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MP election news : पांच साल में नहीं निकला इस समस्या का हल, अब बनेगा चुनावी मुद्दा

locationछिंदवाड़ाPublished: Nov 03, 2018 12:45:03 pm

Submitted by:

Rajendra Sharma

छोटे-बड़े झाड़, जंगल मद की सात सौ बस्तियों को नहीं मिला वैधानिक दर्जा

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विधानसभा चुनाव का मुद्दा: रहवासी हर बार कलेक्ट्रेट में देते रहे ज्ञापन, पांच साल में नहीं निकल पाया हल
छिंदवाड़ा. छोटे बड़े झाड़ के जंगल मद की भूमि में बसी बस्तियों के रहवासी पांच साल से लगातार पट्टा दिए जाने की आवाज उठाते रहे। कलेक्ट्रेट में भी हजारों ज्ञापन सौंपे गए। जनप्रतिनिधियों के दफ्तरों में पहुंचकर गुहार लगाई जाती रही। फिर भी कभी राजस्व नियमों में संशोधन की पहल नहीं हो सकी। इसके चलते जिलेभर की सात सौ बस्तियों का यह संवेदनशील मुद्दा इस विधानसभा चुनाव में छाया हुआ है।
राजस्व के जानकारों के मुताबिक अंग्रेजों के जमाने की वर्ष 1913-14 की मिसलबंदी में ही छोटे बड़े झाड़ के जंगल मद का उल्लेख मिलता है। गांव और शहरों के आसपास कंटीली झाडि़यों वाले जंगलों को इस मद में शामिल किया गया है। इसके बाद इस मद की भूमि में आए न्यायालयीन फैसले के बाद इसे वन की परिभाषा में सम्मिलित कर लिया गया। ये कानूनी पेंच इतने भारी हैं कि राजस्व और वन अधिकारियों ने कई बार इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की, लेकिन कोई व्यवहारिक समाधान नहीं निकल सका। इस मद की जमीन पर इस समय करीब सात सौ बस्तियां बसी हुई हैं। लोग तीस साल से ज्यादा समय से वैधानिक दर्जा और पट्टा के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें कभी भी नियमों के उलझाव के चलते पट्टा नहीं मिल पाया।
बुनियादी सुविधाओं के मोहताज

इस जंगल मद की जमीन पर अतिक्रमण कर बसी बस्तियों के लोग सालों बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते रहे। जैसे-तैसे कुछ स्थानों में नगरीय और पंचायत निकायों ने ये सुविधाएं मुहैया करा दी, लेकिन सरकारी पट्टा नहीं मिल पाने से कई हितग्राहीमूलक योजनाओं से वंचित रह गए।
पीएम आवास से हो गए वंचित

इन बस्तियों के सरकारी पट्टा न बन पाने से स्थानीय रहवासी प्रधानमंत्री आवास के पक्के मकानों से वंचित रह गए। उनकी झुग्गी झोपडि़यों को कभी शायद ये फायदा मिल नहीं पाएगा। इसके आवेदन कई बार एसडीएम और कलेक्ट्रेट कार्यालय में पड़े हुए हैं।
चार साल पहले के कब्जे में पेंच

शासन स्तर पर वर्ष 2014 के पहले के सरकारी जमीन के कब्जे को मान्य करते हुए सरकारी पट्टा देने का नियम बनाया गया था। नजूल और राजस्व की जमीन के 29 सौ प्रकरणों में ही शहरी इलाकों के पट्टे बंट पाए। शेष केस छोटे बड़े झाड़ के जंगल की भूमि के होने के कारण लटके हुए हैं, जबकि कम से कम दस हजार से ज्यादा सरकारी पट्टे बांटने की जरूरत थी। ग्रामीण इलाकों में इसकी शुरुआत ही नहीं हो सकी है।

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