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संत वीतरागी होंगे तो जिनशासन गौरवान्वित होगा

locationछिंदवाड़ाPublished: Jun 27, 2018 01:01:56 am

Submitted by:

Rajendra Sharma

जैन मंदिर के संतनिवास की धर्मससभा में विमर्शसागर ने कहा

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छिंदवाड़ा. संसारी जीव को गृहस्थ जीवन तो अनेकों बार मिला पर इस गृहस्थ जीवन को पाकर हमें क्या करना चाहिए अथवा यह गृहस्थ मनुष्य जीवन हमें क्यों मिला है, इस प्रश्न का समाधान नहीं मिल सका। इसका समाधान हुए बिना जीव सतत् चार गति और चौरासी लाख योनियों में ही जन्म-मरण करता रहता है। हर पर्याय में मृत्यु हमें मारती रही है पर आज तक मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ हम नहीं कर पाए।
यह बात श्रमणाचार्य विमर्श सागरजी महाराज ने कही। गोलगंज स्थित जैन मंदिर में प्रवचन देते हए उन्होंने कहा कि वीतरागी निग्र्रंथ संत ही दुनिया में एक ऐसे हैं जो मृत्यु को भी जीतकर निर्वाण दशा, मोक्ष को प्राप्त कर लिया करते हैं। मृत्यु और निर्वाण में बहुत बड़ा अंतर है। निर्माण मृत्यु का मार्ग नहीं मृत्यु विजय का पथ है। मृत्यु के मार्ग पर सारा जगत चल रहा है पर वीतरागी निग्र्रंथ संत मृत्यु विजय के मार्ग पर चलता है।
धर्मसभा में अपनी चिर परिचित ओजस्वी शैली में आचार्यश्री ने आगे कहा कि श्रावक चार पुरुषार्थ कर सकता है पर दिगम्बर जैन वीतरागी संत केवल दो ही पुरुषार्थ कर सकते हैं। धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ। ऐसी परम पवित्र जिनमुद्रा धारी वीतरागी संतों को कभी अर्थ में मत उलझा देना। कभी साधु से जाकर मत कह देना कि भगवान कुछ पैसों की व्यवस्था बनवा दीजिए।
अर्थ के त्यागी को अर्थ का रागी मत बना देना, अन्यथा यह पवित्र मार्ग मलिनता को प्राप्त हो जाएगा। संत वीतरागी होंगे तो जिनशासन गौरवान्वित होगा और श्रावकों को को समीचीन मार्ग मिलता रहेगा। प्रवचन सुनने बड़ी संख्या में समाज के लोग उपस्थित रहे।
संसार की गति नहीं अपनी मति व्यवस्थित करो
छिंदवाड़ा. तीन लोक मिलकर न तो मुझे सुखी कर सकते हैं और न ही दुखी। मेरे सुख दु:ख का कारण मेरी कल्पना मात्र है। पूरा विश्व अपनी मिथ्या कल्पना के कारण दुखी है और अनादि काल से दुखी हो रहा है। जिन्हें हमेशा हमेशा के लिए सुखी होना हो वे अपनी कल्पनाओं को विराम दें। स्वाध्याय भवन गोलगंज में चल रही धर्म सभा में बाल ब्रह्मचारी सुमतप्रकाश ने यह बात कही। सरल एवं वात्सल्यमयी शैली से जिन शासन की मंगल प्रभावना के साथ युवाओं में सदाचार, शाकाहार के साथ धर्म की रुचि जाग्रत कराने वाले सुमतजी ने कहा कि हम व्यर्थ ही कल्पनाएं करते रहते हैं। वास्तव में जिस कार्य का, जिस विधि से, जिस समय जैसा होना हो वैसा ही होता है यह सब निश्चित है हम उसमें अहंकार ममकार कर सुखी दुखी होते हैं। उन्होंने कहा कि हम दूसरों को, परिवार को, समाज को, देश को अपने अनुसार चलना चाहते हैं और प्रत्येक जीव या पदार्थ का परिणमन अपने अनुसार होता है। कोई कार्य अपने अनुसार होता है तो हम कहते हैं कि मैंने किया। इस बात से अहंकार पैदा हो जाता है कि मैं नहीं होता तो यह कार्य कौन करता। अगर वही कार्य विगड़ जाए या न हो तो तुरन्त ही कहता हैं की ईश्वर की यही इच्छा थी। अरे भाई किसी भी कार्य के होने या बनने का श्रेय लेते हो तो उसके नहीं होने का या बिगडऩे का भी श्रेय लो। समय कम है कार्य अधिक है अत: अपनी बुद्धि को सम्यक निर्णय अर्थात आत्म आराधना में लगाओ। अच्छे-अच्छे चक्रवर्ती और राजा महाराज इस संसार को व्यवस्थित नहीं कर पाए। हमे संसार की गति नहीं अपनी मति व्यवस्थित करनी है। मति व्यवस्थित करते ही संसार व्यवस्थित ही जाएगा।
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