इतिहास बताता है कि बाबूजी ने वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी अपनी छाप छोड़ी। यह दूसरा मौका था, जब उन्होंने नागपुर के धरमपेठ झंडा चौक में निकल रहे जुलूस में अपनी जान की परवाह नहीं की। इस जुलूस का नेतृत्व करते हुए वे अंग्रेज पुलिस की फायरिंग में घायल हो गए। उनके पैर में गोली लगी। फिर भी तिरंगा को थामे रखा।
इसकी जानकारी जब पं. रविशंकर शुक्ल ने पं. जवाहर लाल नेहरू को दी, तो उन्होंने उनके साहस को सराहा।
वर्ष 1947 में आजादी मिलने के पहले देश में अंतरिम सरकार का गठन होने पर पं. शुक्ल जब मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने, तो बाबूजी आदिम जाति कल्याण विभाग में छिंदवाड़ा के प्रथम जिला संयोजक बनाए गए। तब से वे 1989 मृत्युपर्यन्त तक छिंदवाड़ा में रहे। उनका जन्म वर्ष 1902 में एक संभ्रात परिवार में हुआ था।
स्वतंत्रता संग्राम में उनकी उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 1972 में ताम्रपत्र भेंट कर सम्मानित किया। स्थानीय प्रशासन ने साल 2021 में कलेक्ट्रेट से गुरैया रोड के चौक का नामकरण जगमोहन किया। उनकी तीसरी पीढ़ी के अमित श्रीवास्तव बताते हैं कि जब पूरा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब उनके दादाजी के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान से पूरा परिवार गर्वित है। छिंदवाड़ा के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची में बाबूजी का नाम अग्रणी है।