मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के चरित्रों का गुणगान करती रामलीला इस समय देश भर में अपने पूरे शबाब पर है. कई छोटी बड़ी रामलीला समितियां अपनी सामर्थ्य अनुसार रामलीला का मंचन आयोजित करवा रही है. हमारे पूर्वज भारतीय संस्कृति को लेकर कितने सजग और समर्पित थे इस बात का प्रमाण हैं देश की उन रामलीला का मंचन जो 100 वर्ष से भी अधिक समय से पुरानी हैं और देश के कई हालातों में गुजरते जूझते हुए भी अपना अस्तित्व बचाए बनाए रखा. इतिहास के झरोखों से कुछ इसी तरह झांकती है चित्रकूट के पुरानी बाजार में होने वाली रामलीला, जिसने अंग्रेजों की गुलामी से लेकर देश के बंटवारे का मंजर भी देखा और मजहब मजहब की लड़ाई में खुद को संभालते हुए आज तक अपना अस्तित्व बनाए रखा. जनपद की इस रामलीला की गिनती देश की सर्वाधिक पुरानी रामलीलाओं में होती है. आज 155 साल की यात्रा तय कर चुकी है चित्रकूट की यह रामलीला.
1862 में हुई थी शुरू
जनपद मुख्यालय स्थित पुरानी बाजार में होने वाली इस रामलीला ने सन 1862 में अपना सफर शुरू किया था. समाजसेवी काशीनाथ राव गोरे द्वारा श्री रामलीला समाज पुरानी बाजार कर्वी के नाम से समिति बनाई गई और भगवान श्री राम के चरित्रों को लोगों के सामने रखने का निर्णय लिया गया ताकि उस दौर में जब अंग्रेजों का शासन था लोग अपनी संस्कृति से विमुख न होने पाएं. काशीनाथ ने मुख्यालय में चित्रकूट इंटर कॉलेज की स्थापना भी की थी. कस्बे के एक छोटे से मैदान में चिमनियों और मशालों के बीच श्री रामचरितमानस की चौपाइयों पर कलाकारों द्वारा मूक् अभिनय किया जाता था. उस दौरान देशी व् पारंपरिक वाद्य यंत्रों के माध्यम से वातावरण को भक्तिमय बनाते हुए कलाकार चेहरे की भाव भंगिमा से पात्रों के अभिनय को साकार रूप दिया करते थे. मूक् अभिनय का यह क्रम 1862 से सन् 1900 तक जारी रहा. उस दौरान रामलीला समाज समिति के सदस्य ही रामलीला का मंचन किया करते थे.
समय के साथ बदलता गया मंचन का स्वरूप
श्री रामलीला समाज पुरानी बाजार के प्रबंधक श्याम गुप्ता बताते हैं कि चित्रकूट चूँकि धार्मिक नगरी है और श्री राम की तपोस्थली भी इसलिए यहां के लोगों में श्री राम के प्रति अटूट आस्था व् श्रद्धा अलग ही है. श्याम गुप्ता ने रामलीला के इतिहास को खंगालते हुए बताया कि 1862 से सन् 1900 तक मुक् अभिनय के बाद सन् 1901 से संवाद अदायगी के माध्यम से रामलीला का मंचन शुरू हुआ और स्थानीय के बजाए आस पास के पारंगत कलाकारों को मंचन के लिए बुलाया गया. रौशनी के लिए लालटेन मशाल और चिमनियों का उपयोग किया जाता था. मेकअप के साथ पात्रों के अनुरूप थोड़े बहुत पोशाकों का भी इंतजाम भी किया जाने लगा.
101 रूपये से आज तीन लाख पर पहुंची रामलीला
प्रबंधक श्याम गुप्ता बताते हैं कि बड़े बुजुर्गों के मुताबिक सन् 1862 में जब रामलीला मंचन शुरू किया गया था तो उस समय 100 से 101 रूपये तक खर्च होता था. 1862 से सन् 1900 तक लगभग इतने ही खर्चे में रामलीला संपन्न हो जाती थी. सन् 1901 से जैसे जैसे रामलीला मंचन का स्वरुप बदलता गया खर्चे भी बढ़ते गए. 1901 से कभी 200 रूपये तो कभी 150 रूपये तक खर्च हो जाया करते थे मंचन के दौरान. यह सिलसिला लगभग सन 1955 तक चला. 1955 में तत्कालीन राज्यपाल(यूपी) कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने इस परम्परा से प्रभावित व् समिति के सदस्यों के अनुरोध पर जिस स्थान पर सन् 1862 में रामलीला शुरू हुई थी उस जमीन को श्री रामलीला समाज पुरानी बाजार कर्वी के नाम रजिस्टर्ड कर दिया, रजिस्ट्री में उस दौरान मात्र 101 रूपये खर्च हुआ था. जमीन मिलने के बाद उत्साह से लबरेज समिति और क्षेत्रीय लोगों ने चंदा एकत्र करते हुए मुख्यालय स्थित धुस मैदान के पास स्थित इस जमीन पर सन् 1956 में रामलीला भवन का निर्माण कराया. भवन बनने के बाद समय के साथ बदलते रामलीला मंचन में धीरे धीरे थोड़े बहुत ध्वनि यंत्रों आदि का उपयोग तथा कलाकारों की व्यवस्थाओं के चलते 11 से 15 हजार रूपये खर्च होने लगे और सन् 1960 से 1980 तक इससे थोड़े बहुत अधिक खर्चे में रामलीला का मंचन सम्पन्न होने लगा. प्रबंधक श्याम गुप्ता के मुताबिक सन् 2000 तक 25 से 40 हजार रुपया रामलीला मंचन में लगने लगा और आज तक की यात्रा में पहुंचते पहुंचते अब तीन से साढ़े तीन लाख रूपये तक का खर्चा भगवान के चरित्र गुणगान में लग जाता है जो सभी के सहयोग से उत्साह पूर्वक पूरा हो जाता है.
आवश्यकता के अनुसार आधुनिकता का मिश्रण
आज जहाँ महानगरों में होने वाली रामलीला पूरी तरह आधुनिकता की रौशनी में लिपटी हुई है और कलाकारों के संवाद अदायगी से लेकर विभिन्न पात्रों के अभिनय में अत्याधुनिक स्पेशल इफ़ेक्ट का समावेश रहता है ऐसे में चित्रकूट की यह प्राचीन रामलीला आज भी अपने पारंपरिक स्वरूप को नहीं भूली है. रामलीला मंचन में सिर्फ आवश्यक्तानुसार ध्वनि यंत्रों माइक व् रौशनी का उपयोग किया जाता है. कलाकार उतनी ही संजीदगी और पात्रों के अनुरूप भावभंगिमाओं के साथ अभिनय करते हैं जिन्हें देखकर दर्शक रोमांचित हो उठते हैं. रावण की भयानक अट्टाहस में किसी आधुनिक साउंड का स्पेशल इफेक्ट नहीं होता बल्कि जीवंत अभिनय से रावण की गर्जना वातावरण में कोलाहल पैदा कर देती है. इसी तरह अन्य पात्रों के अभिनय भी धरातल पर उतारे जाते हैं.