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गरीबों में रॉबिनहुड की छवि थी इस कुख्यात डकैत की

locationचित्रकूटPublished: Jul 22, 2018 09:46:53 pm

Submitted by:

Ashish Pandey

मुठभेड़ में ढेर करने के बाद एसटीएफ को भी भुगतना पड़ा था ये अंजाम।
 

Robin Hood image

गरीबों में रॉबिनहुड की छवि थी इस कुख्यात डकैत की

चित्रकूट. आज 22 जुलाई 2018 है, आज से ठीक 11 वर्ष पहले 22 जुलाई 2007 को यूपी एसटीएफ ने चित्रकूट के पाठा के बीहड़ों से एक ऐसे खौफ के साम्राज्य का अंत किया था जिसके नाम से मौत भी कांप उठती थी और जिसकी आहट से फिज़ा में सन्नाटे का बादल मंडराने लगता था। दहशत के उस आका के इनकाउंटर की तारीख को उसके चाहने वाले शहादत दिवस के रूप में मनाते हैं। यहां तक कि चित्रकूट के पड़ोसी जनपद फतेहपुर में एक मंदिर भी उसके नाम से बनवाया गया है और जिसमें बकायदा उसकी मूर्ति भी स्थापित की गई है। गरीबों के बीच राबिनहुड जैसी छवि के चलते खाकी को उसकी जिंदा रहते एक अदद तस्वीर भी न हांसिल हुई क्योंकि इस तबके के लोग उसे मसीहा मानते थे। उस खूंखार डकैत को मुठभेड़ में ढेर करने के बाद यूपी एसटीएफ को भी वो अंजाम भुगतना पड़ा जिसका अंदाजा भी एसटीएफ टीम को न था।
झलमल जंगल में हुई मुठभेड़

22 जुलाई 2007 को उस दिन भी रविवार था, चित्रकूट के मानिकपुर थाना क्षेत्र अंतर्गत झलमल जंगल सुबह लगभग 8 बजे से गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज रहा था और आस पास के इलाकों में सन्नाटे और खौफ की दस्तक ने लोगों को घरों में दुबकने के लिए मजबूर कर दिया था। क्योंकि फिज़ा में ये खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल चुकी थी कि ददुआ और एसटीएफ के बीच मुठभेड़ चल रही है। तत्कालीन एसएसपी एसटीएफ अमिताभ यश व एएसपी अनंत देव तिवारी के संयुक्त नेतृत्व में 20 सदस्यीय एसटीएफ टीम की मुठभेड़ जारी थी। इससे पहले टीम ने ददुआ गैंग के छोटा पटेल व नंदू कोल को शनिवार रविवार की रात्रि मार गिराया था।
मुठभेड़ में ढेर हुआ ददुआ

सुबह लगभग 8 बजे से दोपहर 12 बजे तक लगभग चार घण्टे तक हुई भीषण मुठभेड़ के बाद एकाएक डकैतों की तरफ से फायरिंग बंद हो गई। एहतियात बरतते हुए एसटीएफ ने जंगल में सर्च ऑपरेशन शुरू किया, उसके बाद जो बरामद हुआ वो चौंकाने वाला था। जंगल में एक स्थान पर आधा दर्जन डकैतों के शव गोलियों से छलनी पड़े हुए थे। चूंकि ददुआ की जिंदा तस्वीर पुलिस के हाथ कभी लगी नहीं थी सो एसटीएफ को उन शवों में ददुआ का शव होने का ठीक ठाक अंदेशा नहीं था लेकिन मुखबिरों द्वारा बताए गए ददुआ के हुलिए और स्क्रेच के आधार पर तैयार तस्वीर से पड़े हुए शवों में एक का चेहरा काफी मिल रहा था। इधर जंगल में आग की तरह खबर फैलने पर कि ददुआ मारा गया, आस पास के इलाकों सहित पूरे जनपद से लोग उसे देखने के लिए जंगल की ओर चल पड़े।
जिनको दिया जख्म उन्होंने की तस्दीक फिर हुआ डीएनए टेस्ट

मुठभेड़ की खबर पर इलाके के कई बुजुर्ग व अन्य ऐसे लोग पहुंचे जिनको ददुआ ने टॉर्चर किया था, कई बुजुर्ग ऐसे थे जिन्होंने इलाके में एक बार नहीं कई बार ददुआ को करीब से देखा था। एसटीएफ ने जब ऐसे लोगों से शवों में ददुआ के शव होने की तस्दीक करवाई तो उन लोगों ने लगभग 56 वर्षीय एक मजबूत कद काठी के डकैत के शव को ददुआ के रूप में पूरे विश्वास के साथ पहचान की कि यही है ददुआ। तस्दीक होने के बाद शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया और जिस शव की पहचान ददुआ के रूप में हुई थी उसका डीएनए व ददुआ के परिजनों का डीएनए टेस्ट करवाया गया जिससे प्रमाणित हो गया कि ददुआ अब खत्म हो चुका है शव उसी का था।
एसटीएफ को भुगतना पड़ा अंजाम
ददुआ के खात्में के बाद उसी दिन 22 जुलाई को एसटीएफ को एक दूसरे खूंखार डकैत 5 लाख के इनामी ठोकिया के लोकेशन की जानकारी चित्रकूट व बांदा की सीमा पर होने की मिली। लगे हाथ ठोकिया को भी ठिकाने लगाने का प्लान तैयार करते हुए तीन गाडिय़ों में एसटीएफ टीम जंगली ऊबड़ खाबड़ रास्तों से लोकेशन मिलने वाले इलाके के लिए निकल पड़ी। इस बीच ठोकिया को उसके मुखबिरों ने एसटीएफ के मूवमेंट की जानकारी दे दी। सतर्क होते हुए ठोकिया ने अपना प्लान तैयार किया और एसटीएफ टीम जैसे ही चित्रकूट व बांदा के सीमावर्ती फतेहगंज थाना(बांदा) के इलाके में जंगल के पास पहुंची कि टीले पर ऊपर पहले से घात लगाए ठोकिया और उसके गैंग ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दी। स्वचालित हथियारों से एसटीएफ को सम्भलने का मौका भी न मिला और डकैतों के हमले में एसटीएफ के 7 जवान शहीद हो गए। किस्मत से अमिताभ यश, अनंत देव तिवारी और कुछ लोग बच गए। मौके पर पहुंचे तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह ने एसटीएफ को एक वर्ष के भीतर जवानों की शहादत का बदला लेने का निर्देश दिया और ठीक एक साल बाद 4 अगस्त 2008 को ठोकिया को अमिताभ यश की एसटीएफ टीम ने मुठभेड़ में ढेर कर दिया।
आज भी जिंदा है ददुआ
लोगों के ज़ेहन में आज भी जिंदा है ददुआ। खासतौर से अपनी जाति बिरादरी के बीच ददुआ आज भी राबिनहुड की छवि रखता है। पूरे बुन्देलखण्ड सहित आस पास के कई इलाकों में आज भी क्या मजाल कि ददुआ की बुराई उसकी जाति और बिरादरी के बीच कोई कर दे। मुठभेड़ 22 जुलाई 2007 के बाद हर साल उसके चाहने वाले इस तारीख को शहादत दिवस के रूप में संज्ञा देते हैं। ददुआ एक ऐसा नाम है जो चित्रकूट व बुन्देलखण्ड के जातिगत समीकरण में आज भी एक अलग स्थान रखता है और शायद इसीलिए आज भी बुन्देलखण्ड का कोई सफेदपोश सीधे तौर पर उसे डकैत या खुलेआम उसकी आलोचना करने से बचता है।
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