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ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोटी का जरिया है “महुआ” आदिवासी समुदाय के लिए वरदान से कम नहीं

locationचित्रकूटPublished: Apr 19, 2020 01:22:04 pm

आदिवासी समुदाय के लिए महुआ किसी वरदान से कम नहीं क्योंकि इसकी वजह से उनके पेट भरने का इंतजाम हो जाता है.

ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोटी का जरिया है

ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोटी का जरिया है

चित्रकूट: “महुआ” जिसकी मदहोश मीठी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क को आह्लादित कर देती है. मार्च के अंतिम सप्ताह से लेकर अप्रैल के अंतिम व मई के शुरुआती दिनों तक ग्रामीण इलाकों की फ़िजाएं महुआ की महक में अंगड़ाई लेती हैं. जंगली इलाकों में तो पूरा जंगल इसकी खुशबू से गुलजार रहता है. आज के आधुनिक युग में महुआ की मिठास सिर्फ गांव देहात तक ही सीमित रह गई है. या यूं कह सकते हैं कि प्रकृति प्रदत्त औषधीय गुणों से युक्त इसकी पहचान शराब बनाने में प्रयुक्त होने वाली एक महत्वपूर्ण सामग्री के रूप में ज़्यादा पैठ बना चुकी है. बड़े शहरों महानगरों में महुआ को काफी हद तक इसी की वजह से जाना जाता है. परन्तु यही महुआ आज भी असंख्य परिवारों की रोजी रोटी का ज़रिया है. खासकर आदिवासी समुदाय के लिए महुआ किसी वरदान से कम नहीं क्योंकि इसकी वजह से उनके पेट भरने का इंतजाम हो जाता है.
साल भर रहता बेसब्री से इतंजार

इस समय आप देश प्रदेश के किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में निकल जाइए आपको एक खास खुशबू आकर्षित करेगी. ये महक होती है महुआ की. मध्यम आकार के पत्तों के साथ बड़े बड़े पेड़ों से महुआ टपकने का मौसम चल रहा है. ग्रामीण इलाकों में साल भर इस मौसम का बेसब्री से इंतजार रहता है. ग्रामीण पेड़ से गिरे महुआ को बीनने यानी एकत्र करने के लिए तत्पर रहते हैं. आदिवासी इलाकों में तो ये सीजन खासा महत्व रखता है क्योंकि आदिवासियों की रोजी रोटी का एक महत्वपूर्ण माध्यम है महुआ. एक एक फली उठाकर उसे एकत्र करना और फिर धूप में सुखाना काफी मेहनत का काम माना जाता है लेकिन आदिवासी समुदाय के लोग ख़ुशी से इसमें पसीना बहाते हैं इस उम्मीद के साथ कि इसे बेंचकर उनके जीवकोपार्जन का इंतजाम हो जाएगा.
अल सुबह शुरू होती है जद्दोजहद


महुआ बीनने की शुरुआत अल सुबह हो जाती है. गर्मी के इस मौसम में दोपहर होने तक तेज धूप व गर्म हवाएं दुश्मन बन जाती है इस काम में लगे लोगों के लिए. जंगलों में तो और दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सूर्य देव की तीखी निगाहों से तपते जंगल तन बदन को झुलसा देते हैं. जनपद के पाठा क्षेत्र के बीहड़ों जंगलों में बहुतायत पेड़ हैं महुआ के और सीजन शुरू होते ही इन इलाकों में ग्रामीणों आदिवासियों की चहलकदमी शुरू हो जाती है. हालांकि पिछले कई वर्षों से डकैतों की दहशत के कारण घने जंगलों में महुआ बीनने का काम नहीं होता था लेकिन अब दहशतगर्दों के ख़ात्मे के बाद ग्रामीण दूरदराज के बीहड़ों में भी निकल जाते हैं. हालांकि जंगली जानवरों का खतरा अब भी बरकरार है. वन विभाग ने ग्रामीणों को सावधान भी किया है.
इस तरह होता है व्यापार

महुआ को बाजार में 30 से 35 रुपये प्रति किलो के हिंसाब से बेंचा जाता है. हालांकि इसके थोक व्यापारी कम ही मिलते हैं फिर भी कस्बाई व ग्रामीण इलाकों के बाजारों में इसकी कीमत आज भी है. महुआ से तेल भी निकाला जाता है. आदिवासी कई इलाकों में लगने वाली साप्ताहिक बाजारों में जाकर थोक के भाव महुआ बेंचते हैं. एक खास बात यह कि वनोपज पर निर्भर रहने वाले आदिवासी दिन रात रखवाली भी करते हैं पेड़ों की. आपस में पेड़ बांट भी लिए जाते हैं.
औषधीय गुणों से भरपूर है महुआ

महुआ अपने औषधीय गुणों के कारण गांव देहात यहां तक कि ग्रामीण परिवेश से जुड़े लोगों के बीच आज भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है. दही व दूध ले साथ महुआ खाने से शरीर हिष्ट पुष्ट बनता है. जोड़ों के दर्द में भी महुआ का सेवन व इसके तेल का प्रयोग काफी लाभप्रद माना गया है. हेल्दी फैट का अच्छा स्रोत है महुआ.

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