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भव भ्रमण का अंत लाता है चारित्र धर्म

locationकोयंबटूरPublished: Oct 13, 2019 01:47:14 pm

Submitted by:

Dilip

आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर के प्रवचन- आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि विज्ञान के सभी साधनों में व्यक्ति का समय बचाने के अनेक उपाय हैं। वर्षों पहले विज्ञान के अभाव में घरेलू कामों में ही दिन गुजर जाता है।

भव भ्रमण का अंत लाता है चारित्र धर्म

भव भ्रमण का अंत लाता है चारित्र धर्म

कोयम्बत्तूर. आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि विज्ञान के सभी साधनों में व्यक्ति का समय बचाने के अनेक उपाय हैं। वर्षों पहले विज्ञान के अभाव में घरेलू कामों में ही दिन गुजर जाता है। आज विज्ञान के युग में कई कार्य कम समय में निपटा दिए जाते हैं। बचे हुए समय का उपयोग करनेके लिए टीवी मोबाइल आदि मनोरंजन के साधन भी दिए हैं। दिन के २४ घंटे हरेक के लिए एक समान होने व संसाधन होने के बाद भी व्यक्ति कहता है उसके पास समय नहीं है। ऐसे में धर्म को भी व्यक्ति भूल जाता है।
वे यहां बहुफणा पाश्र्वनाथ जैन ट्रस्ट की ओर से चल रहे चातुर्मास कार्यक्रम के तहत आयोजित धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि यह धर्म की शक्ति है कि एक दिन की विशुद्ध संयम जीवन की आराधना करने से ही जीवात्मा को मोक्ष अथवा वैमानिक देवलोक में जन्म अवश्यमेव मिलता है। अनंत काल में जीवात्मा के हुए भव भ्रमण का अंत लाने में चारित्र धर्म की आराधना समर्थ होती है। उन्होंने कहा कि चारों गतियों में अनंत काल से परिभ्रमण कर रही आत्मा के लिए दुगर्ति स्वरूप तिर्यंच या नरक की प्राप्ति सरल है, लेकिन सद्गति स्वरूप मनुष्य व देव की गति कठिन है। कष्ट व त्याग तप के जरिए देव गति की प्राप्ति हो सकती है, लेकिन मनुष्य के रूप में जन्म प्राप्त होना कठिन है। मनुष्य जन्म मिल भी जाता है तो आर्य कुल, आर्यदेश, सद्धर्म की सामग्री, पंच इंद्रिय परिपूर्णता आदि के साथ सद्धर्म का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा एवं इसके साथ आचरण करना कठिन है।
उन्होंने कहा कि स्वयं तीर्थंकर भी जिस चारित्र धर्म की आराधना करके अपने जीवन में सर्व कर्मों का क्षय करते हैं देवलोक में रहे असंख्य सम्यग दृष्टिदेवता भी प्रतिदिन चारित्र धर्म की इच्छा रखते हैं, तीर्थंकर सिद्धि पद की प्राप्ति के लिए चारित्र धर्म की ही आराधना करते हैं।
उन्होंने कहा कि भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर हुए उन्होंने केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद चतुर्विघ संघ की स्थापना की। महावीर प्रभु को केवल ज्ञान की प्राप्ति वैशाख सुदी दशमी के दिन हुई थी जबकि चतुर्विघ संघ की आराधना वैशाख सुदी एकादशी को हुई। इसका मुख्य कारण यह था कि उस दिन समवशरण में एक भी आत्मा ऐसी नहीं थी जो सर्व विरतिधर्म स्वरूप चारित्र को स्वीकार कर सके। इससे स्पष्ट है कि वीतराग परमात्मा के शासन का प्रारंभ विरति धर्म के स्वीकार करने से ही होता है। जब तक सर्व विरति धर्म आत्माएं होती हैं तब तक ही शासन चलता है। इसके अभाव से चतुर्विघ संघ का भी अभाव हो जाता है। प्रभु का शासन सर्व विरति चारित्र से चलता है। मात्रश्रावकों से शासन नहीं चलता। प्रवचन के बाद अशोक गेमावत ने भक्ति संगीत प्रस्तुत किया। रविवार को शत्रुंजय महातीर्थ की भाव यात्रा का कार्यक्रम होगा।
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