तप धर्म का सर्वाधिक महत्व
कोयंबटूरPublished: Oct 17, 2019 01:46:55 pm
जैन आचार्य विजय रत्नसूरीश्वर ने जैन शासन में तप धर्म के महत्व को बताया। उन्होंने कहा कि वीतराग परमात्मा ने कहा है कि तप के सेवन से ही देह की ममता का त्याग, रसना जय व कषाय जय से कर्म क्षय होता है। कर्मक्षय से आत्मा शुद्ध आत्मा बन अजरामर मुक्ति प्राप्त करती है।
तप धर्म का सर्वाधिक महत्व
कोयम्बत्तूर. जैन आचार्य विजय रत्नसूरीश्वर ने जैन शासन में तप धर्म के महत्व को बताया। उन्होंने कहा कि वीतराग परमात्मा ने कहा है कि तप के सेवन से ही देह की ममता का त्याग, रसना जय व कषाय जय से कर्म क्षय होता है। कर्मक्षय से आत्मा शुद्ध आत्मा बन अजरामर मुक्ति प्राप्त करती है।
वह यहां जैन मैन्योर में आयोजित चातुर्मास कार्यक्रम के तहत धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि देव, ममत्व और त्याग अनादि काल से संसारी आत्मा को स्वदेह पर अत्यंत ममत्व रहा है। अत्यधिक राग के कारण आत्मा अनेक पापाचरण करते हैं। स्वदेह में आत्म बुद्धि के कारण मिथ्यात्व से ग्रस्त आत्मा देह की पुष्टि के लिए हिंसा व अहिंसा का विचार नहीं करती। पुण्य पाप का विवेक नहीं करती। मात्र स्वदेह में ही आसक्त रहती है दूसरे के सुख दुख का विचार नहीं करती। इस प्रकार पाप आचरण से आत्मा नए कार्यो का बंध करते हुए अनेक दुख का बंध का अनुभव करती है। उन्होंने कहा कि सदगुरु के समागम से सन्मार्ग की प्राप्ति होती है। आत्म स्वरूप का ज्ञान होता है। तब आत्मा मिथ्यात्व रोग से मुक्त बनती है। इस प्रकार आत्मा के शुद्धात्म स्वरूप के बोध से देह व आत्मा की भिन्नता का भी ज्ञान होता है। इस प्रकार के देह के भिन्न आत्मा के बोध से आत्मा देह की ममता का त्याग करती है। तप धर्म के निरंतर अभ्यास से आत्मा देह के भयंकर दुखों में भी दृष्टा मात्र बन कर रहती है। सम्यग तप से आत्मा देह के नाश के बावजूद दुख का अनुभव नहीं करती। उन्होंने कहा कि ममता के त्याग के बिना आत्म सुख का संवेदन तथा सम्यग तक के बिना देह की ममता का त्याग भी संभव नहीं है। तप धर्म के अभ्यास से व्यक्ति सहनशील बनता है और देह के दुखों को हंसते हुए सहन करता है। तप धर्म का दूसरा उद्देश्य इंद्रियजय है। साधक विभिन्न तपों के जरिए भोजन के विविध रसों का त्याग करता है अभ्यास से धीरे धीरे रसेन्द्रियों पर विजय पा सकता है। पांच इंद्रियों में रसेन्द्रि ही सबसे बलवान है। उन्होंने कहा कि आहार की आसक्ति के त्याग के बिना इन्द्रिय विजय नहीं पाई जा सकती।