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आत्म हित के लिए आराधना जरूरी

locationकोयंबटूरPublished: Oct 15, 2019 09:05:21 pm

Submitted by:

Dilip

आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि जैन शासन में साधु, साध्वी श्राविका के लिए ‘छह आवश्यकÓ का पालन प्रतिदिन करना है। छह आवश्यक यानि सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, गुरूवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, पचक्खाण इनकी आराधना से आत्मा पूर्व बंध किए कर्म के बंधनों से मुक्त होती है।

आत्म हित के लिए आराधना जरूरी

आत्म हित के लिए आराधना जरूरी

कोयम्बत्तूर. आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि जैन शासन में साधु, साध्वी श्राविका के लिए ‘छह आवश्यकÓ का पालन प्रतिदिन करना है। छह आवश्यक यानि सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, गुरूवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, पचक्खाण इनकी आराधना से आत्मा पूर्व बंध किए कर्म के बंधनों से मुक्त होती है। शुभ भाव से आराधना के कारण पुण्य का बंध होता है।
वे यहां जैन मेनोर अपार्टमेंट के उपाश्रय में आयोजित धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। साधु जीवन मेंं सामायिक की आराधना दीक्षा के दिन से ही होती है, जबकि श्रावक -श्राविकाएं गृहस्थ होते हैं इय कारण उनके लिए पूरे दिन सामायिकी जरूरी नहीं। उन्होंने कहा कि चतुर्विंशति स्तव यानि परमात्मा की द्रव्य और भाव से पूजा-आराधना। साधु जीवन में धनादि परिग्रह का त्याग होने से उन्हें द्रव्य पूजा का निषेध है। मात्र भाव पूजा स्वरूप परमात्मा भक्ति की आराधना कर सकते हैं। श्रावक के जीवन में धन आदि का द्रव्य का त्याग पूरी तरह से नहीं होने के कारण मन के भीतर धन की आसक्ति तोडऩे के लिए परमात्मा की विशेष द्रव्यों से पूजा भक्ति करनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि परमात्मा के साथ गुरू भगवंत की भक्ति करनी चाहिए। जिस प्रकार दो पहियों से गाड़ी चलती है उसी प्रकार मोक्ष मेंं आगे बढऩे के लिए परमात्मा व गुरू का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के जरिए उनका आलंबन जरूरी है। चौथा आवश्यक आराधना प्रतिक्रमण है। जब स्वीकार हुए व्रत नियमों में कोई अतिक्रमण हो जाए तो उन्हें शुद्ध करने के लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए। दिनभर के पापों का क्षय करने के लिए देवसीय प्रतिक्रमण, रात भर के पापों का क्षय करने के लिए सुबह राई प्रतिक्रमण, १५ दिन के पापों के क्षय के लिए पक्खी प्रतिक्रमण, चार मास के लिए चौमासी व वर्ष भर के पापों का क्षय करने के लिए संवत्सरी प्रतिक्रमण होता है।
पांचवां कायोत्सर्ग है। इसमें काया को मर्यादित काल में काया की ममता का त्याग करना है। पूर्व के जन्मों मेंं नरक, पशु व मनुष्य गतियों में हमारी आत्मा ने इच्छा के बिना कष्ट भुगते हैं। इसके बावजूद कर्म की निर्जरा अल्प होती है जबकि प्रसन्नता पूर्वक कष्टों को सहने पर कर्म की निर्जरा पूरी तरह से हो जाती है।
उन्होंने कहा कि आहार ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव नहीं लेकिन सांसारिक आत्मा को आहार जरूरी है। प्रत्याख्यान आवश्यक आहार की आसक्ति को तोडऩे के लिए हैं। अनादि काल से आहार ग्रहण करने की क्रिया चालू है। लेकिन क्रिया के साथ अनुकूल आहार मिले तो मन में राग भाव पैदा हुए बिना नहीं रह सकता। प्रतिकूल आहार से मन में राग द्वेष पैदा होते हैं। इन वृत्तियों को तोडऩे के लिए प्रत्याख्यान करता
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