पूजन का पौराणिक आधार ये भी
प्रधान पुजारी हरेंद्र नाथ जिया के मुताबिक पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान विष्णु कार्तिक माह में मत्स्य स्वरूप में रहते हैं। कार्तिक माह में ही उन्होंने जलंधर का वध करने उसकी पत्नी तुलसी का पतिव्रत धर्म भंग किया था। इसके बाद से तुलसी को भगवान विष्णु की पत्नी के रूप में पूजा करने का वर दिया था, जिसके बाद से ऐसी परंपरा चली आ रही है। इस शक्तिपीठ में देवी नारायणी स्वरूप में विराजित है। यही वजह है कि यहां पर मंदिर के सामने गरूड़ स्तंभ स्थापित है, जो अन्यत्र किसी भी देवी मंदिर में नहीं मिलता। तुलसी पूजन में कार्तिक चतुर्दशी तक 7 दिनों तक लगातार दंतेश्वरी सरोवर से पानी लाकर देवी को स्नान कराया जाता है।
ऐसे बनता है काढ़ा
लक्ष्मी पूजा की पूर्व संध्या पर मंदिर में सेवा देने वाले कतियार काढ़ा तैयार करने जंगल से तेजराज, कदंब की छाल, छिंद का कंद और अन्य जड़ी बूटियां लेकर आते हैं। इस मौके पर पारंपरिक रायगिड़ी वाद्य और बाजा-मोहरी के वादन के बीच औषधियों को खास थाल में रखकर मंदिर तक पहुंचाया जाता है। इसके मंदिर के भोगसार यानि भोजन पकाने के कक्ष में उबालकर काढ़ा तैयार करते हैं। अगली सुबह यानि दीपावली की सुबह ब्रह्ममुहूर्त में देवी को इसी काढ़े से स्नान कराते हैं और लक्ष्मी स्वरूप में पूजन करते हैं। इसके साथ ही सप्ताह भर तक ब्रह्म मुहूर्त में होने वाली तुलसी पानी पूजा का समापन हो जाता है। ।