पावटा कस्बे के हदीरा मैदान में यह युद्धनुमा होली खेली जाती है। गुर्जर समाज के पीलवाड़ पट्टी और दडग़स पट्टी गांव के युवा दो दल बनाकर बड़े जोश के साथ चमड़े की डोलची से एक-दूसरे की पीठ पर पानी की बौछार कर इस खेल को खेलते हैं। प्रहार इतनी तेज होता है कि कई युवाओं की पीठ लहुलूहान हो जाती है। डोलची होली की तैयारी के लिए मैदान के चारों ओर पानी के टांकों का निर्माण कर उनमें रंग मिला दिया जाता है। घरों में युवाओं की हल्दी और तेल से मालिश की जाती है। तीन-चार घंटे खेल चलने के बाद पंच-पटेल दोनों दलों को समझाकर रोकते हैं और फिर देवर-भाभी की होली भी खेली जाती है।
सिर धड़ से अलग हो गया था फिर भी लोहा लेता रहा था बल्लू शहीद
करीब ढाई सौ वर्षों से अनवरत खेली जाने वाली इस डोलची होली के पीछे गांव की धार्मिक भावना जुड़ी हुई है। ग्रामीणों की माने तो सैकड़ों वर्ष पूर्व दो गांवों के आपसी संघर्ष में बल्लू नाम का ग्रामीण का सिर धड़ से अलग हो गया था, फिर भी वह दुश्मनों से लोहा लेता रहा। उसी बल्लूू शहीद की याद में ग्रामीण युवा डोलची होली को खेल ते हैं।
होली नहीं खेली तो अकाल पड़ गया
बुजुर्ग बताते हैं कि एक बार होली नहीं खेली तो गांव में अकाल पड़ गया था। इसके बाद बल्लू शहीद के चबूतरे पर जाकर मन्नत की और हमेशा होली खेलने की कसम खाई, तब जा कर गांव की विपत्ति दूर हुई।