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धर्म-कर्म

बंगाल की मिट्टी से बेंगलूरु में संवरती हैं देवी प्रतिमाएं

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5 years ago
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बंगाली मूर्तिकार प्रतिमा निर्माण के दौरान पौराणिक मान्यताओं और परंपराओं का विशेष ध्यान रखते हैं। यहां तक कि मूर्ति निर्माण के दौरान मिट्टी लेपने से लेकर आंख बनाने तक की तिथियां निर्धारित रहती हैं। जयमहल क्षेत्र में पिछले २८ वर्षों से मूर्ति निर्माण कर रहे चंद्रशेखर पाल कहते हैं कि बेंगलूरु में प्रतिमा निर्माण में कई चुनौतियां हैं। मुख्यत: यहां की मिट्टी में बालू का अंश ज्यादा होने के कारण प्रतिमा निर्माण के लिए मिट्टी भी पश्चिम बंगाल से लानी पड़ती है। हालांकि शुरूआती लेप स्थानीय मिट्टी की चढ़ती है जबकि ऊपरी लेप बंगाल से लाई गई मिट्टी की चढ़ती है।

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साथ ही, प्रतिमा की साज सज्जा के लिए भी अधिकांश सामग्री कोलकाता से लाई जाती है। वर्ष १९९१ से चंद्रशेखर हर वर्ष पश्चिम बंगाल से बेंगलूरु विशेष रूप से प्रतिमा निर्माण के लिए आते हैं। उनके अनुसार हर साल दुर्गा पूजा के दौरान १०० से ज्यादा बंगाली मूर्तिकार यहां आते हैं और काली पूजा यानी दिवाली तक प्रतिमा निर्माण में जुड़े रहते हैं।

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महालय के अंधेरे में मूर्तियां पाती हैं नेत्र ज्योति
बांग्ला मान्यता के अनुसार महालय के दिन ही मूर्तिकार देवी दुर्गा की आँख बनाते हैं, जिसे चक्षुदान भी कहते हैं। इसका मतलब होता है आँखे प्रदान करना। मूर्तिकार की हफ्तों की मेहनत अमावस के अंधेरे में आंख पाकर साकार होती है। मूर्तिकारों की मान्यता है कि आंखों में रंग भरना ही देवी में प्राण भरने का पहला चरण है।

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गंगा मिट्टी का लेप
मूर्तिकार सोलम पाल के अनुसार गंगा मिट्टी के लेप के बिना प्रतिमाएं नहीं निखरती हैं। दरअसल गंगा के किनारे पाई जाने वाली मिट्टी में चिकनाहट भी होती है और इस मिट्टी में सूखने पर दरार भी नहीं आता। हर साल पश्चिम बंगाल से कई टन मिट्टी सिर्फ प्रतिमा निर्माण के लिए लाई जाती है।

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न रासायनिक रंग, न पीओपी का प्रयोग
दुर्गा की भव्य मूर्तियां बनाने वाले मूर्तिकार पर्यावरण का भी ध्यान रखते हैं। मूर्ति निर्माण में बंास, पुआल और मिट्टी का उपयोग होता है। इससे प्रतिमाएं विसर्जन के तुरंत बाद पानी में गल जाती हैं। साथ ही कुछ दिनों में बांस और पुआज भी प्राकृतिक रूप से सडग़ल जाता है। प्रतिमाओं के रंग रोगन में भी रासायनिक रंगों का इस्तेमाल नहीं होता है।

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