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देवी देवताओं की तरह ही पूजनीय होते हैं हमारे पितर

locationभोपालPublished: Sep 13, 2019 01:36:20 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

Pitru Paksh : shradh karm pind daan ka mahatva : जैसे ईश्वर के कारण ही संपूर्ण ब्रह्मांड का अस्तित्व है वैसे ही मनुष्य का अस्तित्व भी अपने पूर्वज पितरों के कारण ही है। इसलिए तो दिवंगत पितरों की पूजा के लिए विशेष रूप सोलह दिन निर्धारित किए गए है।

देवी देवताओं की तरह ही पूजनीय होते हैं हमारे पितर

देवी देवताओं की तरह ही पूजनीय होते हैं हमारे पितर

Pitru Paksh : हमारे पूर्वक पितर जिनके हम वंशज है, जो इस दुनिया से विदा हो गए जिनके कारण ही हमारा अस्तिव है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि हमारे पितृ दिवंगत होने के बाद देवी देवताओं की तरह ही पूजनीय एवं श्रद्धा के पात्र होते हैं। कहा जाता है कि जैसे ईश्वर के कारण ही संपूर्ण ब्रह्मांड का अस्तित्व है वैसे ही मनुष्य का अस्तित्व भी अपने पूर्वज पितरों के कारण ही है। इसलिए तो दिवंगत पितरों की पूजा के लिए विशेष रूप से सोलह दिन निर्धारित किए गए है।

 

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सूक्ष्म शरीरधारी

दिव्य योनियों के चार वर्ग पितर, मुक्त, देव और प्रजापति हमारी तरह पंच तत्वों का दृश्यमान शरीर धारण किए हुए नहीं है अस्तु उन्हें हम चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते तो भी उन्हें सूक्ष्म शरीरधारी ही कहा जायगा। पितर वे हैं जो पिछला शरीर त्याग चुके किन्तु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके। इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं। वे साधारण पितरों से कई गुना शक्तिशाली होते हैं जो लोभ-मोह के—राग द्वेष के—वासना तृष्णा के बन्धन काट चुके।

 

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श्रेष्ठ आत्माएं

ऐसे पितर जिनकी सेवा सत्कर्मों की प्रचुरता से उनके पापों का प्रायश्चित्य पूर्ण हो गया, उन्हें शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती। उनका सूक्ष्म शरीर अत्यन्त प्रबल होता है, अपनी सहज सतोगुणी करुणा से प्रेरित होकर प्राणियों की सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करते हैं। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान देते हैं। श्रेष्ठ कर्मों की सरलता और सफलता में उनका प्रचुर सहयोग रहता है, ये श्रेष्ठ आत्माएं मुक्त पुरुषों की होती हैं। उदार प्रवृत्ति वाले पितर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार मुक्त पुरुषों की ही गतिविधियों का अनुसरण करने का प्रयास करते रहते हैं।

 

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श्राद्ध-कर्म की परम्पराएं

मुक्त आत्माओं और पितरों के प्रति मनुष्यों को वैसा ही श्रद्धा-भाव दृढ़ रखना चाहिए, जैसा देवों—प्रजापतियों तथा परमात्म—सत्ता के प्रति। मुक्तों, देवों-प्रजापतियों एवं ब्रह्म को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए मनीषी-पूर्वजों ने पितर पूजन श्राद्ध-कर्म की परम्पराएं प्रचलित की थी। उनकी सही विधि और उनमें सन्निहित प्रेरणा को जानकर पितरों को सच्ची भाव-श्रद्धांजलि अर्पित करने पर वे प्रसन्न होकर बदले में प्रकाश प्रेरणा, शक्ति और सहयोग देते हैं।

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