प्राचीनकाल कथाओं के अनुसार भ्रदावतीपुरी के राजा सुकेतमान और उनकी पत्नी चंपा संतान सुख से वंचित थे। दुखी राजा एक दिन वन की ओर चल दिए। वहां उनकी भेंट ऋषि-मुनियों से हुई। उन्होंने मुनियों को अपनी पीड़ा बताई। मुनियों ने कहा कि हे राजन, आपने बड़े ही शुभ दिन पर यह प्रश्न किया है, आज पौष शुक्ल एकादशी तिथि है। इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। आप इसका व्रत रखें तो निश्चित ही संतान की प्राप्ति होगी।
व्रत के पुण्य से रानी चंपा कुछ समय पश्चात गर्भवती हुईं और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। आगे चलकर उनकी संतान धर्मात्मा हुई। एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।