परंपरागत
भारतीय ज्योतिष में व्यक्ति की जन्मकुंडली के चौथे स्थान को सुखों का कारक माना गया है और कहा गया है कि यदि व्यक्ति को जीवन में सुख सहेजने हैं तो उसे चौथे स्थान से संबंधित रिश्तों और वस्तुओं का सम्मान करना चाहिए। जन्मपत्री के चौथे स्थान का संबंध मां और नदी से है। इसीलिए विद्वानों ने कहा है कि जन्नत का दरवाजा मां के पांवों तले है। आप चरणों में झुककर तो देखिए, सुखों की संभावनाएं आपको तलाश लेंगी।
भारतीय समाज में माता का स्थान अत्यंत गरिमायुक्त और महत्वपूर्ण माना गया है। इसीलिए अथर्ववेद में पुत्रों को माता के मनोनुकूल रहने की सलाह देते हुए कहा गया है “माता भवतु सम्मनाह।” जब कोई व्यक्ति अपने गुरूकुल में शिक्षा पूर्ण कर लेता था तो गुरू उसे जीवन में सफलता का आशीष देते हुए कहते थे कि वह माता को देवता के समान मानते हुए उनका आदर करे। प्राचीन धर्मसूत्रों में माता को श्रेष्ठ गुरू कहा गया है। शिवाजी की मां जीजाबाई ने पुत्र के सुखों और उसके सम्मान के प्रति अपने त्याग और अपनी निष्ठा से साबित भी कर दिया कि मां संसार की सर्वश्रेष्ठ गुरूओं में एक होती है।
महर्षि वशिष्ठ ने तो यहां तक कहा है “दस उपाध्यायों से अधिक गौरव एक आचार्य का है। (प्राचीनकाल में धन के बदले शिक्षा दान करने वालों को उपाध्याय कहा जाता था और उन्हें आचायोंü की तुलना में कम सामाजिक महत्व प्राप्त था।) सौ आचायोंü से अधिक महत्व पिता का और एक हजार से अधिक पिताओं की तुलना में माता का महत्व होता है।” महाभारत में कहा गया है कि माता के समान छाया, रक्षा स्थान और प्रिय वस्तु कोई अन्य नहीं हो सकती। तैतरीय उपनिषद में कहा गया है- मातृदेवो भव। पाश्चात्य मान्यताएं भी जीवन में मां के महत्व को सबसे ऊपर का दर्जा देती हैं तभी तो एक यहूदी कहावत कहती है कि ईश्वर हर जगह उपस्थित नहीं हो सकता था, इसलिए उसने मां के मन का निर्माण किया।
तर्कशास्त्री शंकर ने एक जगह लिखा है कि प्रसूति में उदरशूल की वेदना, लालन पालन में होने वाले कष्ट आदि में से किसी का भी प्रतिदान पुत्र संपूर्ण सामर्थ्य सहेजने के बाद भी नहीं चुका सकता। हमारी परंपराओं में पृथ्वी और प्रकृति से लेकर गाय और गंगा तक को भी “माता” माना गया है। यदि स्वर्ग का आशय एक सुखपूर्ण अस्तित्व के निर्वहन से है तो मां के पांवों के नीचे सचमुच स्वर्ग का दरवाजा है। आप इन चरणों में झुककर तो देखिए,सुखों की संभावनाएं स्वयं आपको तलाश लेंगी।