scriptपुस्तैनी रोजगार पर मंडरा रहे संकट के बादल | Clouds of crisis going on employment | Patrika News

पुस्तैनी रोजगार पर मंडरा रहे संकट के बादल

locationडिंडोरीPublished: Oct 29, 2018 05:00:54 pm

Submitted by:

shivmangal singh

उपेक्षा के चलते चरखों से ग्रामीण बना रहे दूरी

Clouds of crisis going on employment

Clouds of crisis going on employment

डिंडोरी। पुस्तैनी कारोबार से अपना व अपने परिवार का पेट पालने वालों के सामने अब दो वक्त की रोटी जुटाना कठिन पड़ रहा है। जिले में रोजगार के अन्य कोई साधन भी नहीं हैं। जिले में बहुत से गांव हैं जहां विभिन्न तरह के हुनर जिनमें काष्ठकला, चित्रकला, माटी की कारीगरी सहित कपडे बनाने का काम पीढियों से ग्रामीण करते आ रहे हैं। इस तरह के हुनर को हमेशा से नजरंदाज किया जाता रहा है। जिसकी वजह से यहां के पुस्तैनी हुनर को ग्रहण लगने लगा है और गांव में अब उनके काम की कदर करने वाला कोई नहीं बचा है। एक समय था जब जिले में इन कारीगरों व हुनरमंदों की धाक दूर बडे इलाके तक थी। लिखनी, मझियाखार, पिण्रूखी, सरवाही जैसे कुछ ऐसे गांव हैं जहां पर बुनकरों की बडी तादात है। यहां पर कपडे बनाने का हुनर यहां के वासिंदों को अलग पहचान देता था लेकिन हालात कुछ ऐसे बदले कि अब इनके हुनर का कदरदान नहीं बचा है। लिहाजा अब काफी मुसीबतों से यहां के ग्रामीण अपना जीवन यापन कर रहे हैं। इनके हुनर पर कभी सरकारी मदद मिली लेकिन वह इन ग्रामीणों को और कर्जदार बना गई।
बनाया गया था मकान, लगाई गई थी मशीने
लिखनी गांव में बुनकर समुदाय के लिये बहुत पहले एक भवन बनाया गया था। जहां पर कपडा बनाने के लिये देषी मषीनों की स्थापना की गई थी। जिले में कच्चे माल का अभाव और कच्चे माल की उपलब्धता पर खर्च अधिक होने से धीरे-धीरे यहां पर कपडों का निर्माण कम होता गया। एक समय था जब इलाके में कपडे की आपूर्ति लिखनी सहित अन्य गावों से हो जाया करती थी लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध ने इन गांवों के हुनर पर ग्रहण लगा दिया। बाद में गांव की कला को पुनर्जीवित करने के लिये जिला पंचायत के माध्यम से मशीनरी की उपलब्धता कराई गई साथ ही बाजार से प्रतिस्पर्धा के लिये कथित तौर पर प्रशिक्षण देकर एक बार कपड़े तैयार कराए गए। दोबारा यहां पर प्रशासन ने रूख नहीं किया बाद में जब ग्रामीणों को जानकारी लगी कि उन्हें जो मशीनरी दी गई है और कच्चा माल उपलब्ध कराया गया है वह योजना के माध्यम से उनके सिर पर ऋण के रूप में थोपा गया था। हुनर तो यहां पहले से मौजूद था बस उसे तराशने का काम करना था और उन्हें कर्जदार बना दिया गया। वहां तक तो ठीक था उसके बाद इनके निर्मित माल के लिए कोई बाजार उपलब्ध नहीं कराये जाने से मंशा पर पानी फिर गया।
नई पीढ़ी हो रही दूर
अपने हुनर की दुर्दशा व उसके भविष्य पर मंडराते संकट को देखते हुये आने वाली पीढ़ी को इस व्यवसाय से ग्रामीणों ने दूर रखा है। अब जो भी ग्रामीण काम करते हैं वह किसी व्यापारी के लिये करते हैं जो उन्हें कच्चा माल दे जाता है और तैयार कपडे ले जाता है। इसके एवज में उन्हें थोडा बहुत मजदूरी ही नसीब हो पाती है। इन गावों की कला को लेकर कभी किसी भी दल ने कोई सार्थक प्रयास नहीं किये और आज की स्थिति में उंगलियों में गिन सकने वाले परिवार बचे हैं जो इस काम को कर रहे हैं। अपने हुनर को लेकर किये जा रहे उपेक्षित व्यवहार से ग्रामीण भी दुखी हैं और गांव में वह भवन जहां पर कभी दिन रात कपडे बनाने का काम चलता था उनके कपडों की मांग रहती थी वह अब खण्डहर हो चुके हैं। मशीनें भी कबाड हो चुकी हैं जिसे देखकर कपडे बनाने वाले कारीगर काफी दुखी हैं।
इलाके में हो जाती थी खपत
गांव के लोग बताते हैं कि पहले वह अपने यहां से चादर, शर्ट पेंट के कपडे, परदे, गमछा, साडियों का निर्माण करते थे। जिसकी खपत आसपास के इलाके में हो जाती थी। मजबूती के मामले में बेहतर होने के कारण उनके कपडों की मांग भी काफी अधिक हुआ करती थी। जनजातीय समुदाय की विभिन्न साडिय़ां जिनमें चकदरिया, मूंगी के निर्माण में तो उन्हें महारत थी और हाथों हाथ उनके निर्मित कपडे बिक जाया करते थे। धीरे धीरे बाजार के विस्तारीकरण ने उनकी रोजी रोटी छीन ली। बाद में अंबेडकर स्व सहायता समूह और कबीर स्व सहायता समूह बनवाया गया। जिससे उन्हें उम्मीद जगी थी कि अब उनके हुनर की कदर होगी लेकिन अधिकारियों ने उन्हें कर्जदार बनाकर रख दिया। गांव के गणेश कोरबे, हरिसिंह, सोनूलाल, तेजीलाल नागेश की मानें तो उनकी कला अब विलुप्ति की कगार पर है। साथ ही उनमें निराशा व हताशा का भाव भी है कि कला के संरक्षण में सरकारों ने कभी रूचि नहीं दिखाई।
हमारे काम को अब सम्मान नहीं मिलता है इसलिये नई पीढी भी इस काम को करने की इच्छुक नहीं है सरकारी मदद की तो कोई उम्मीद ही नहीं है हमने अपनी आने वाली पीढियों को भी यह नहीं सिखाया है क्योंकि इसका भविष्य नहीं बचा है।
दालचंद, ग्रामीण
हमारी पीढियों से यह काम किया जा रहा है हमने अपने बुजुर्गों से यह कला सीखी है लेकिन अब इस कला का सम्मान नहीं बचा है हमारी कला को बचाये रखने के लिये कभी किसी ने संजीदगी नहीं दिखाई जिस कारण गांव गांव में यह कला अब समाप्त होते जा रही है।
फग्गूलाल, ग्रामीण
जिला पंचायत ने समूह बनाकर हमें मशीनरी उपलब्ध करायी, प्रशिक्षण दिलवाया उम्मीद थी कि इसके बाद हमारे काम को गति मिलेगी लेकिन भोपाल जैसे शहरों में प्रदर्शन करा किसी ने दोबारा हमारी सुध नहीं ली उल्टे हमें कर्जदार बना दिया गया जिसकी भरपाई इस व्यवसाय से तो संभव नहीं है।
शोकलाल नागेश, ग्रामीण
हमारे काम को कोई भी व्यक्ति कमतर नहीं आंक सकता, गुणवत्ता सहित अन्य मामलों में हमारे कपडे बाजार का मुकाबला कर सकते हैं लेकिन इसे प्रोत्साहन नहीं दिया गया एक तो जिले में रोजगार के कोई साधन नहीं है इस तरह जो पुस्तैनी रोजगार हमारे पास थे अब उनमें भी खतरा मडरा रहा है।
मनबोध, ग्रामीण
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो