scriptसावधान! बार-बार आंखें मलना सेहत के लिए ठीक नहीं | Rubbing eyes frequently not good for health | Patrika News

सावधान! बार-बार आंखें मलना सेहत के लिए ठीक नहीं

locationजयपुरPublished: Jun 06, 2018 04:19:00 am

किरेटोकोनस आंख की पारदर्शी पुतली (कॉर्निया) में होने वाला रोग है। इसमें कॉर्निया के आकार में उभार (कॉनिकल शेप) आ जाता है। आइए जानते हैं इस समस्या के बारे में।

बार-बार आंखें मलना

सावधान! बार-बार आंखें मलना सेहत के लिए ठीक नहीं

किरेटोकोनस आंख की पारदर्शी पुतली (कॉर्निया) में होने वाला रोग है। इसमें कॉर्निया के आकार में उभार (कॉनिकल शेप) आ जाता है। आइए जानते हैं इस समस्या के बारे में।

प्रमुख वजहें
किरेटोकोनस की समस्या दो हजार लोगों में से किसी एक को होती है। ज्यादातर मामलों में इसकी वजह का पता नहीं चलता। आंखों की एलर्जी व धूल-मिट्टी के कारण आंखों को बार-बार मलने से यह रोग हो सकता है। इसके अलावा फैमिली हिस्ट्री या डाउन सिंड्रोम होने की स्थिति में किरेटोकोनस होने की आशंका अधिक रहती है।

रोग के लक्षण
किरेटोकोनस के मरीजों को देखने में परेशानी होती है। चश्मे का तिरछा नम्बर धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और चश्मा लगाने के बाद भी व्यक्ति को स्पष्ट दिखाई नहीं देता। इस वजह से मरीज को पढऩे-लिखने, रोजमर्रा के काम करने और वाहन चलाने में दिक्कत होती है। इस समस्या में रोगी में प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है और उसे पढऩे-लिखने के दौरान अधिक जोर लगाना पड़ता है। कुछ मामलों में मरीजों को तिरछा और दो या अधिक प्रतिबिम्ब भी दिखाई पड़ सकते हैं।

प्रभावी इलाज
रोग की शुरुआती अवस्था में ही इलाज के लिए आजकल कॉर्नियल कॉलिजन क्रॉस लिंकिंग विद राइबोफ्लेविन (सी३-आर) तकनीक प्रयोग में ली जा रही है। हालांकि इससे किरेटोकोनस की समस्या ठीक नहीं होती है लेकिन परेशानी को बढऩे से रोका जा सकता है।

इसमें अल्ट्रावॉयलेट किरणों से कॉर्निया की सिकाई की जाती है। इस दौरान आइसोटॉनिक व हाइपोटॉनिक राइबोफ्लेविन ड्रॉप्स (विटामिन-बी-२) के प्रयोग से कॉर्निया के कॉलेजन फाइबर्स की मजबूती तीन सौ गुना तक बढ़ जाती है। इस सर्जरी के बाद बैंडेज कॉन्टेक्ट लैंस लगाए जाते हैं जिन्हें ५-१० दिन बाद हटा दिया जाता है। कुछ मामलों में ३-४ दिन तक मरीज को धुंधला दिखाई दे सकता है जो थोड़े दिन में सामान्य हो जाता है।

सर्जरी के बाद स्थिति को स्थायी बनाए रखने, रोशनी को बढ़ाने और तिरछा नंबर न बढ़े इसके लिए डॉक्टर की सलाह से ‘रोज-के’ लैंस लगवा सकते हैं। इसके अलावा जिन्हें लैंस को बार-बार लगाने व हटाने में परेशानी हो, उन्हें स्थाई रूप से इम्प्लांटेबल टोरिक कॉन्टेक्ट लैंस (आई.सी.एल), इंट्रास्ट्रोमल कॉर्नियल सेग्मेंट रिंग सेग्मेंट या टोरिक इंट्राऑकुलर लैंस लगाते हैं।

सही समय पर इलाज जरूरी
मरीजों की कॉर्नियल टोपोग्राफी जांच से रोग की पहचान आसान हो जाती है। समय पर इलाज से आंखों की रोशनी को बरकरार रखा जा सकता है।

इन्हें ज्यादा खतरा
सामान्यत: 14 वर्ष की उम्र से लेकर 30 वर्ष की आयु तक के पुरुषों और महिलाओं को यह समस्या हो सकती है क्योंकि इस दौरान हमारे शरीर में हार्मोनल बदलाव होते हैं। औसतन 90 प्रतिशत मरीजों की दोनों आंखों में किरेटोकोनस होने की आशंका रहती है।

सावधानियां
किरेटोकोनस की फैमिली हिस्ट्री हो तो इस संबंध में डॉक्टर की सलाह से एहतियात बरतें।
आंखों में बार-बार खुजली की समस्या हो तो विशेषज्ञ को दिखाएं।
यदि चश्मे का तिरछा नंबर बार-बार बदले तो यह रोग का लक्षण हो सकता है। विशेषज्ञ से संपर्क करें।

ध्यान रखें ये बातें
इस रोग से पीडि़त मरीजों को एलर्जी होने पर अधिक नुकसान होता है। इसलिए घर से बाहर निकलते समय धूप के चश्मे का प्रयोग जरूर करें।
किरेटोकोनस की समस्या होने पर ड्राइविंग करते हुए खासकर रात के समय तेज रोशनी से बचें क्योंकि इससे उन्हें धुंधलापन व दो प्रतिबिम्ब दिखने की समस्या हो सकती है। ऐसे में दुर्घटना की आशंका बनी रहती है।

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो