वह 3 जून 1981 का दिन था, मैं मुंबई के वीटी स्टेशन पर उतरा। जेब में फकत 37 रुपये थे। कई रातें सडक़ों पर गुजारीं, खाली पेट सोया और लोगों से झूठ भी बोला लेकिन खुद से हमेशा सच कहा। अंत में दादाजी को चि_ी लिखी कि लोग धक्के मारकर बाहर कर देते हैं। एनएसडी का गोल्ड मेडलिस्ट था इसलिए ज्यादा बेइज्जती महसूस होती थी। दादाजी का जवाब आया, ‘याद रखो, भीगा हुआ इंसान बारिश से नहीं डरता! मां-बाप ने तुम्हें पढ़ाने के लिए घर के बर्तन बेचे, घड़ी बेची, इसलिए नहीं कि तुम वापस आ जाओ!’
कोई भी नहीं उतरा आसमान से मुझे यह पता नहीं था कि एक्टर कैसे बनूंगा! मुम्बई में किसी को जानता नहीं था और शिमला में अट्ठारह बरस की उम्र तक मुझे यह लगता था कि एक्टर जैसे पर्दे पर दिखते हैं, वैसे ही होते भी हैं। ‘लार्जर दैन लाइफ’ वाला भ्रम तब टूटा पहली बार शिमला में शूटिंग देखी थी पता चला कि एक्टर हमारी तरह ही हाथ से खाना खाते हैं। कोई दूसरा सफल हो सकता है तो हम भी हो सकते हैं।
मेहनत का कोई विकल्प नहीं परिश्रम और ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं है। मैं प्रशिक्षक और निर्देशक के रूप में ऐसा काम करना चाहता हूं कि दुनिया सम्मान की नजर से देखे। मैं सबसे कहता हूं कि खुद से कभी झूठ मत बोलो और विफलता से मत डरो। विफलताओं की कहानियां ज्यादा मनोरंजक होती हैं और इन्हीं से उसका रास्ता निकलता है, जिसे हम सफलता कहते हैं।