राष्ट्रीय स्तर पर इन चुनाव ने कुछ अहम संकेत दिए हैं। स्थापित होता जा रहा है कि जब चुनाव ज्यादा से ज्यादा नेतृत्व के आधार पर लड़े जाएंगे। लोगों के लिए पार्टी और उमीदवार से ज्यादा यही मायने रखेगा। यूपी में लोग महंगाई, बेरोजगारी, आवारा पशु जैसे मामलों से नाराज थे, लेकिन मोदी और योगी के नेतृत्व में उन्हें फिर भी भरोसा था। इसी तरह पंजाब में आप का संगठन नदारद था, लोग उम्मीदवारों को पहचान भी नहीं रहे थे, फिर भी केजरीवाल पर भरोसा जताया।
हमें देखना होगा कि स्थानीय विधायक की भूमिका के घटने का लोकतंत्र के स्वास्थ्य पर क्या असर होगा। चुनाव में यह भी साफ हुआ है कि धार्मिक धु्वीकरण मतदाताओं के मन में गहरे बैठता जा रहा है। अलग से चुनाव में यह मुद्दा भले बहुत जोर नहीं पकड़े तो भी लोगों के मन में बैठ चुका है।
2013 में जब आप ने दिल्ली का पहला चुनाव लड़ा था, उसके बाद लगने लगा था कि विपक्ष की नई ताकत खड़ी हो सकती है, लेकिन 2017 में पंजाब में उसकी हार के बाद इस रफ्तार में ब्रेक लगा। अब पंजाब में भारी जीत के बाद वह संकत फिर से मजबूत होकर सामने आ गए हैं कि यह पार्टी दिल्ली के बाहर भी चुनाव जीत सकती है।
यूपी में कांग्रेस और बसपा अप्रासंगिक— उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस चुनाव ने बसपा और कांग्रेस को अप्रासंगिक बना दिया। वहां राजनीति दो पार्टियों भाजपा और सपा के बीच सिमट गई है। राजनीतिक दलों और विश्लेषकों को इन संकेतों को और गहराई से देखना तथा विश्लेषण करना होगा।
महिला वोटरों की भूमिका बढ़ी
महिला वोटर की राजनीति में भूमिका बढ़ रही है। पहले लोग इस आधार पर अपनी रणनीति नहीं बनाते थे। भाजपा ने इस पर पर्याप्त ध्यान दिया। पीएम मोदी का यूपी जैसे राज्य में महिलाओं पर सीधा प्रभाव दिखा और उसका फाया उन्हें मिला।