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International Disability Day special : रिक्शा चालक का नेत्रहीन बेटा बना प्रोफेसर

locationरीवाPublished: Dec 03, 2017 06:47:34 pm

Submitted by:

Ajeet shukla

जुनून ने दिलाई सफलता, शासकीय महाविद्यालय में हैं पदस्थ

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रीवा। गरीबी के दंश के साथ अंधता भी जन्म से नसीब में मिली। लेकिन इसे अपना नसीब मानकर पूरी जिंदगी बीताना गंवारा नहीं हुआ। इस संकल्प के साथ मुश्किलों के बीच सामान्य लोगों की तरह कुछ हासिल करने का जुनून न केवल उन्हें विशेष बना दिया। बल्कि आज उन लोगों के लिए प्रेरणा बन रहे हैं, जो उनके जैसे दिव्यांगता के शिकार हैं।
चार बेटों में शामिल रहे अनिल
बात एपीएस विश्वविद्यालय से संबद्ध शासकीय महाविद्यालय रामपुर नैकिन सीधी में प्राध्यापक के पद पर पदस्थ रीवा के अनिल साकेत की कर रहे हैं। जिले के रायपुर कर्चुलियान विकासखंड के पडऱा गांव निवासी महंगूलाल के चार बेटों में तीसरे नंबर के अनिल बचपन से ही पूरी तरह अंधता के शिकार रहे। महंगू रिक्शा चलाकर जैसे-तैसे सात सदस्यों का परिवार का पालन पोषण करते रहे।
पिता ने दिलाया स्कूल में दाखिला
लेकिन जब अनिल बड़े हुए तो उन्होंने पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर करते हुए पिता से अपने मंसूबे को बयां किया। अनिल खुद बताते हैं कि पहले तो पिता ने गरीबी का हवाला देते हुए बेटे को समझाया। लेकिन जब अनिल नहीं माने तो उन्होंने यहां शहर में नेत्रहीन एवं विकलांगता विद्यालय में दाखिला करा दिया।
बदल गई परिवार की स्थिति
बच्चे की जिद पर पिता का साहस रंग लाया और अनिल नाम का छोटा बच्चा डॉ. अनिल बन कर शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक बन गया। डॉ. अनिल ने न केवल अपनी जिंदगी संवारी बल्कि परिवार की स्थिति भी बदल दी। भाई व्यवसाय में लग गए और पिता रिक्शा चलाना छोडक़र अब घर में बुढ़ापा काट रहे हैं।
ट्यूशन पढ़ाकर की पढ़ाई
पिता की गरीबी के चलते आर्थिक तंगी अनिल की सफलता के राह में अंधता से बड़ी रोड़ा बनी। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जैसे-तैसे हायर सेकेंड्री की पढ़ाई पूरी करने के बाद जबलपुर के लिए रवाना हो गए। वहां उन्होंने ट्यूशन पढ़ाकर न केवल इतिहास विषय में स्नातक व परास्नातक की पढ़ाई पूरी की। बल्कि पीएचडी भी किया। जुनून में की गई मेहनत रंग लाई और वर्ष 2005 में प्राध्यापक पद के लिए चयन हो गया।
एक कंबल में गुजरा छात्र जीवन
डॉ. अनिल बताते हैं कि आर्थिक तंगी न होती और उन्हें पढ़ाई के साधन मिलते तो वह आज एक प्रशासनिक अधिकारी होते। बीते दिनों को याद करते हुए डॉ. अनिल ने बताया कि उनका पूरा छात्र जीवन एक कपड़े और एक कंबल में बीता। ठंड की रातें वह आग सेंक कर बिताते। दूसरा कपड़ा तब तक नसीब नहीं होता, जब तक एकलौता कपड़ा पूरी तरह से जर्जर नहीं हो जाता। कई बार तो उन्हें कपड़ा दूसरे से मांगने तक की नौबत आई।
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