गुरु कार्य
जननी रूप में वह सांसारिक स्त्री होती है। प्रजनन उसका नैसर्गिक कर्म है। जैसा कि प्रत्येक प्राणी की मादा में होता है। उसे केवल ग्रहण करना है। पोषण करना है। सब प्रकृति-दत्त कार्य है। अनिवार्य है।
जननी रूप में वह सांसारिक स्त्री होती है। प्रजनन उसका नैसर्गिक कर्म है। जैसा कि प्रत्येक प्राणी की मादा में होता है। उसे केवल ग्रहण करना है। पोषण करना है। सब प्रकृति-दत्त कार्य है। अनिवार्य है।
शास्त्र कहते हैं कि मां बच्चे की प्रथम गुरु होती है। सही कहा है। मां ही विश्व संस्कृति का निर्माण करती है। जिस शरीर को मकान के रूप में मां ने तैयार किया, उसमें कुछ काल बाद आत्मा आकर रहने लगता है। वह पहले अन्य शरीर में रह रहा था। मनुष्य था अथवा कोई अन्य प्राणी था, पता नहीं। मां उसकी हरकतों से यह जानने का प्रयत्न करती है कि वह कहां से आया है। उसके मन में उठने वाली इच्छाओं का आकलन करती है। अपने सपनों का आकलन करती है। मनोभावों के बदलाव को समझने का प्रयास करती है। और वह जान जाती है कि कौन प्राणी के संस्कार लेकर आया है। इसी के अनुरूप वह पाठ्यक्रम तैयार करती है।
उसे मालूम है कि आत्मा सब समझता है। वह भी लाखों योनियों में चलकर आया है। कहानियां सुनाती है, लोरियां गाती है। अपने सपनों की बातें करती है। खानदान का इतिहास सुनाती है। उसे बड़ा होकर क्या करना है और क्या नहीं करना, यह सब सिखा देती है। सम्पूर्ण मानव के संस्कार देती है। अभिमन्यु बनाकर समाज को सौंपती है। स्वयं तो तपस्या करती है। जीव की इच्छाओं को ध्यान में रखकर अपनी जीवनशैली का निर्माण कर लेती है। स्वयं मर्यादित रहती है। मर्यादित बोलती है। उसका हर शब्द शिशु के लिए तो मंत्र के समान होता है। मां चारों ओर के वातावरण को शान्त और पवित्र रखती है।
जो माताएं यह गुरु कार्य नहीं करतीं, उनकी संतानें भी जैविक संतानें ही रह जाती हैं। शरीर मनुष्य का और उसको भोगने वाला-न जाने कौन? अन्य प्राणियों को तो बस आहार-निद्रा-भय-मैथुन आते हैं। जैविक संतान का जीवन भी यहीं तक ठहरा हुआ रह जाता है। वह जीवन की अर्थवत्ता को कभी नहीं समझ सकता। नारायण बनने के लिए तो पहले नर बनना पड़ेगा।
जीवन का आधार
आज जिस तरह की शिक्षा का दौर है, उसमें इस भूमिका की कोई विशेष चर्चा नहीं होगी। लडक़े और लड़कियां केवल विषय पढ़ते हैं, नम्बर लाते हैं, नौकरियां तलाशते हैं। नौकरी जीवन यापन के लिए आवश्यक तो है, किन्तु जीवन नहीं है। अच्छी नौकरी से जीवन का निर्माण भी होना चाहिए, ताकि अन्त में निर्वाण भी हो सके। प्रकृति के इस अंश पर जब तक शिक्षा की पकड़ नहीं होगी, विश्व का संस्कारवान होना संभव नहीं है। प्रेम और शान्ति कुछ पीढिय़ों के बाद किताबों में रहेगी। समाज व्यवस्था टूट चुकी होगी। एकल जीवन ही दिखाई देगा। कोई व्यक्ति कभी राष्ट्र से नहीं जुड़ पाएगा। एक-एक करके मानवता के सारे लक्षण लुप्त होते जाएंगे। बस शरीर रह जाएगा। व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं कर्ता होगा, उसका पाशविक अहंकार और आक्रामकता होगी। स्त्री-पुरुष साथ होंगे, किन्तु पति-पत्नी भाव नहीं होगा। इस संकल्प के बिना दाम्पत्य रति नहीं होगी। विरक्ति के दौर में भक्ति की ओर ले जाने वाली पत्नी नहीं होगी। वही तो देवरति में बदलती है।
आज जिस तरह की शिक्षा का दौर है, उसमें इस भूमिका की कोई विशेष चर्चा नहीं होगी। लडक़े और लड़कियां केवल विषय पढ़ते हैं, नम्बर लाते हैं, नौकरियां तलाशते हैं। नौकरी जीवन यापन के लिए आवश्यक तो है, किन्तु जीवन नहीं है। अच्छी नौकरी से जीवन का निर्माण भी होना चाहिए, ताकि अन्त में निर्वाण भी हो सके। प्रकृति के इस अंश पर जब तक शिक्षा की पकड़ नहीं होगी, विश्व का संस्कारवान होना संभव नहीं है। प्रेम और शान्ति कुछ पीढिय़ों के बाद किताबों में रहेगी। समाज व्यवस्था टूट चुकी होगी। एकल जीवन ही दिखाई देगा। कोई व्यक्ति कभी राष्ट्र से नहीं जुड़ पाएगा। एक-एक करके मानवता के सारे लक्षण लुप्त होते जाएंगे। बस शरीर रह जाएगा। व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं कर्ता होगा, उसका पाशविक अहंकार और आक्रामकता होगी। स्त्री-पुरुष साथ होंगे, किन्तु पति-पत्नी भाव नहीं होगा। इस संकल्प के बिना दाम्पत्य रति नहीं होगी। विरक्ति के दौर में भक्ति की ओर ले जाने वाली पत्नी नहीं होगी। वही तो देवरति में बदलती है।
नया मानव तो जीवन साथी बदलेगा। उसे मोक्ष नहीं चाहिए। लेकिन मानव समाज का निर्माण करना है, संस्कारवान राष्ट्र चाहिए तो स्त्री की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाना होगा। उसकी शक्ति ही जीवन का आधार है। जिस देश में महिला सुखी नहीं है, उस देश में शान्ति और प्रेम नहीं ठहर सकते। मानवता ही उठ जाएगी। ढांचे रह जाएंगे, आत्मा सुप्त हो जाएगी।