हर चुनाव में दिखा फरमानों का असर
भले ही फतबे ना हो लेकिन इन फरमानों की चर्चा किए बिना कोई भी घाटी वासी रह नही पा रहा है। आज भले ही डाकुओ के फरमान नही है फिर भी फरमानो को याद करके घाटी वासियों की रूह आज भी कांप जाती है। चंबल घाटी मेंं डकैतों का यह फरमान दो दशक तक कमोवेश हर लोकसभा या विधानसभा चुनाव के साथ साथ पंचायत चुनावो मेंं जारी होता रहा है । डाकुओ के फरमान की शुरूआत चंबल घाटी में जातिय आधार पर पंचायत चुनाव में 1990 से शुरू हुई। उसके बाद इसका प्रभाव बढ करके विधानसभा से होते हुए लोकसभा चुनाव तक आ पहुंचा। 1996 मेंं लखना विधानसभा सीट से चुनाव में मैदान मेंं उतरी सपा प्रत्याशी के पक्ष में डाकू रज्जन गूर्जर आदि डकैतो ने फरमान पहली बार जारी किया। जिसका प्रभावी असर देखने को मिला कि सपा प्रत्याशी की जीत हुई।
राजनैतिक दलो के पक्ष में हुए फरमान
सपा प्रत्याशी से पराजित हुए भाजपा प्रत्याशी बताते है कि प्रचार के दौरान दर्जनो गांव के ग्रामीणो ने इस बात की पुख्ता शिकायत करके उनको अवगत कराया कि फरमान के चलते सपा के पक्ष में मतदान करना उनकी मजबूरी बन गई है । फरमान का असर इस कदर हुआ कि रात के समय डर के वजह से प्रचार कर पाना संभव नही हो सका नतीजतन पराजय का मुंह देखना पडा । इस बात की शिकायत चुनाव आयोग से भी की गई लेकिन पुलिस मतदाताओ पर अपनी पकड नही बना पाई और फरमान हावी रहे ।
फक्कड़ ने शुरू किया था फरमान
1998 के लोकसभा में भाजपा के टिकट पर उतरी प्रत्याशी के पक्ष में उस समय के कुख्यात डाकू रामआसरे उर्फ फक्कड ने चंबल इलाके के कई मतदान केंद्र पर बूथ लूटे थे । जिसके नतीजे में भाजपा इटावा संसदीय सीट जीतने में कामयाब हो गई । लेकिन जिन शर्तों पर फक्कड़ ने भाजपा प्रत्याशी की मदद की वो चुनाव जीतने के बाद कामयाब नही हुई बाद में फक्कड ने अपने गैंग के करीब नौ साथियो के साथ साल 2004 में मध्यप्रदेश के भिंड में सर्मपण कर दिया था।
1991 के बाद दिया फरमानों का असर
1991 में हुए विधानसभा चुनाव में दस्यु रामआसरे फक्कड़ ने जिस राजनीतिक दल के समर्थन मेंं प्रचार किया । इतना ही नहीं चुनावी रंजिश ने बीहड़ी रंजिश को भी जन्म दिया। दस्यु लालाराम और फक्कड़ के बीच टकराव हुआ । ये दोनों बड़े गिरोह जब आपस में टकराए तो चंबल की वादियों मेंं तमाम नए दस्यु गिरोहों का जन्म हो गया । ये सभी गिरोह अपने-अपने क्षेत्र में इतने प्रभावी हो गए कि लोगों को फरमान जारी करने लगे । राजनीतिक लोग भी इन डकैतों की मदद लेने लगे और अपने पक्ष में फरमान जारी करवाने की जुगत भिड़ाने लगे । इन डकैतों ने अपने फरमानों से जिन लोगों को चुनाव जितवाया ।
पंचायत चुनाव में भी रहा बोलबाला
क्वारी नदी की गोद में बसे विंडवा कला गांव में दस्यु सलीम गुर्जर ने अपनी बहन को 1995 में प्रधान बनवाया तो 2000 में अपने बहनोई को प्रधानी का ताज पहनवाया । 2005 के चुनाव में जगजीवन परिहार ने चौरेला से अपने एक परिवारी को चुनाव जितवाया तो कुर्छा, कुंवरपुरा, विडौरी, नींवरी, हनुमंतपुरा सहित दर्जनों पंचायतों में दस्यु निर्भय गुर्जर के लोग चुनाव जीत गए । इतना ही नहीं पंचायतों के चुनाव मेंं मात्र 7, 11 और 21 वोटों पर चुनावी प्रक्रिया पूर्ण कर दी गई । इतना ही नहीं क्षेत्र पंचायत सदस्य चुने गए एक जन प्रतिनिधि सत्यनारायण की तो निर्भय गुर्जर ने गांव आकर उसकी नाक इसलिए काट ली। क्योंकि उसने चुनाव लड़ा और स्कूल के लिए जमीन दी । चकरनगर ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर वर्ष 2000 से 2010 तक निर्विरोध चुनाव होता रहा।
1998 में डाकुओ ने निकाली थी आंखे
साल 1998 में राम आसरे उर्फ फक्कड़ और कुसमा नाइन ने फरमान ना मानने के एवज में भरेह थाना क्षेत्र में मल्लाह बिरादरी के संतोष और राजबहादुर की आंखें निकालकर के क्रूर सजा दी थी । यह चंबल घाटी में एक ऐसी सजा थी जिसकी कोई दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती है । वैसे संतोष राज बहादुर औरैया जिले के असेवा गांव के रहने वाले थे लेकिन फरमान ना मानने के एवज में दोनों को घर से उठाकर के 10 किलोमीटर दूर ले जाकर के आंखें निकाल कर के क्रूरतम सजा दी गई ।
200 गांव में रहा है असर
इतिहास पर नजर डाले तो बीहड़ के 200 गांव एक अर्से से दस्यु प्रभावित रहे हैं। ग्रामपंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों तक यहां खूंखार डाकुओं के फरमान पर मतदाता वोट डालने को विवश हुए हैं। बीहड़ की धरती गवाह है कि जिसने भी दस्यु सरगनाओं की हुक्मउदूली की उसे परिणाम भुगतना पड़ा। बीते दो दशक के दौरान दर्जनो से अधिक कुख्यात डकैत या तो ढेर कर दिए गए या आत्मसर्पण कर जेल पहुंच गए।
डाकुओं का था कभी बोलबाला
दस्यु सम्राट श्रीराम, लालाराम, निर्भय गुर्जर, रामआसरे उर्फ फक्कड़, कुसमा नाइन, फूलन देवी, सलीम उर्फ पहलवान, रज्जन गूर्जर, गंभीर सिंह, चंदन, जगजीवन परिहार ऐसे नाम हैं जो बीहड़ वासियों के लिए वर्षों आतंक का पर्याय बने रहे।