इष्टिकापुरी के इतिहास में पहली बार हुआ भव्य आयोजन। आध्यात्मिकता का संचार असम के मां कामाख्या धाम से आए भैरव गौरवनाथ महाराज ने चतुर्दिक वाहिनी यमुना नदी के बीच में शाकम्भरी नवरात्र से 41 दिन का कल्पवास शुरु किया है। उनका यह कल्पवास गुप्त नवरात्रि तक जारी रहेगा। कल्पवास की परम्परा प्राचीन काल से ऋषि मुनियों के द्वारा शुरु की गई थी। जिसका निर्वाहन आज भी संगम या अन्य पावन नदियों के किनारे साधु संत के अलावा गृहस्थ लोग भी कर रहे हैं। भैरव गौरवनाथ महाराज ने इष्टिकापुरी की चतुर्दिक वाहिनी यमुना के तट को कल्पवास के लिए चुना है। उनके साथ काफी संख्या में अन्य साधक व आचार्य भी आए हुए हैं। यमुना तट पर 108 त्रिशूल स्थापित करके दस महाविद्याओं का आहवान करने के साथ कल्पवास की शुरुआत हुई थी।
वैसे तो प्रतिदिन रात्रि में अलग-अलग साधनाएं की जा रही हैं, लेकिन विशेष रूप से मां यमुना को डेढ़ सौ मीटर की साड़ी ओढ़ाने का कार्यक्रम आयोजित हुआ था। यमुना के इस पार से उस पार तक 35 साड़ियों को जोड़कर एक बड़ी साड़ी तैयार की गई थी। साड़ी ओढ़ाने के साथ मां यमुना को सोलह श्रंगार की सामग्री भी अर्पित की गई। इस दौरान उज्जैन से आए गजेंद्र व्यास ने पंचामृत, गंधोदक व शुद्धोदक स्नान भी कराया और दस महाविद्याओं का पूजन अर्चन भी किया। जिस समय मां यमुना को भैरव गौरवनाथ महाराज ने साड़ी ओढ़ाई उस समय माता के जयघोष से यमुना के आसपास का क्षेत्र गुंजायमान हो उठा। गौरवनाथ महाराज का कहना है कि कल्पवास के दौरान मां यमुना व गंगा को साड़ी ओढ़ाने का विशेष महत्व होता है। लम्बे समय के बाद यमुना तट का नजारा अब बदला हुआ नजर आ रहा है। भैरव गौरवनाथ महाराज के कल्पवास करने से यहां पर जिले के ही नहीं बल्कि कई प्रांतों से श्रद्धालु आ रहे हैं। यमुना नदी के बीच में साधना के लिए विशेष कुटिया भी बनाई गई हैं और चारो तरफ रंग बिरंगी पताकाएं भी लहरा रही हैं। यमुना पर पहुंचने वाले लोग जब उन लहराती हुई पताकाओं को देखते हैं तो वह कल्पवास स्थल की ओर खिंचे चले जाते हैं।