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मनोवांछित इच्छाएं पूरी करने वाला महापर्व छठ पूजा आज से आरंभ

Published: Oct 24, 2017 11:58:13 am

चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है

chhath puja 2017

chhath puja 2017

पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए लोक आस्था का चार दिवसीय महापर्व डाला छठ आज से मनाया जा रहा है। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें न केवल उदयाचल सूर्य की पूजा की जाती है बल्कि अस्ताचलगामी सूर्य को भी पूजा जाता है। सूर्योपासना का अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश समेत बिहार और नेपाल के अलावा प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है। इस पर्व को हिन्दुओं के अलावा इस्लाम धर्म को मानने वाले समेत अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे गये हैं।
छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बत्र्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है। लोक आस्था का पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में।
चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं। डूबते सूर्य को अघ्र्य अर्पण कर पर्व की शुरूआत और दूसरे दिन उगते हुए सूर्य को अघ्र्य चढ़ाकर इसका समापन किया जाता है। शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहते हैं
यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का भव्य प्रदर्शन है। इस पर्व का पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। दूसरे दिन पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। मुख्य तीसरे दिन षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लडुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
इसी दिन शाम शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्ध्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने नदी या तालाब की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रति एक नियत समय तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अघ्र्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अघ्र्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले जैसा दृश्य बन जाता है। व्रति सारी रात नदी या पोखरे के किनारे बिताते हैं। कुछ लोग अपने-अपने घर भी लौट आते हैं।
चौथे दिन सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुन: इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अघ्र्य दिया था। पुन: पिछले शाम की प्रक्रिया की जाती है। सभी व्रति तथा श्रद्धालु घर वापस आते हैं, व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के बाद व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं। आचार्य पण्डित दयासागर मिश्र ने बताया कि भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है।
सूर्योपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गयी है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है। सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारम्भ हो गयी, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का वर्णन पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है।
मिश्र ने बताया कि उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। इसने कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाये गये। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई गई। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। सम्भवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।

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