धर्म और सत्य की जीत कृष्ण को गोकुल में रहते हुए कृष्ण को कंस द्वारा भेजे गए अनेक असुरों के षड्यंत्रों का सामना करना पड़ा। जन्म के छह दिन बाद ही पूतना नामक राक्षसी ने उन्हें दूध पिलाने के बहाने मारने की कोशिश की, लेकिन बालक कृष्ण ने पूतना को ही मार डाला। कृष्ण ने एक-एक करके कंस के सभी दुष्ट सहायकों का संहार कर दिया। असुरों से बालक कृष्ण के सतत संघर्ष की कहानी बताती है कि हर व्यक्ति और समुदाय को अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए न केवल सचेत रहना चाहिए अपितु आवश्यकता पडऩे पर कू्ररतम इरादों से संघर्ष के लिए तत्पर भी रहना चाहिए क्योंकि संघर्ष के बिना स्वतंत्रता की रक्षा संभव नहीं है। यहां श्रीकृष्ण यह भी संदेश देते गए कि समय कोई भी हो जीत हमेशा सत्य और धर्म की ही होती है।
कर्म को दी प्राथमिकता महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने अपने वचन के अनुसार शस्त्रहीन रहकर अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई। सत्य तो यह है कि अनेक कठिन अवसरों पर पांडव श्रीकृष्ण की चतुराई और दूरदृष्टि के कारण ही संकट से पार पा सके। युद्ध शुरू होने के पूर्व जब शत्रुसेना में अर्जुन अपने निकट परिजनों और मित्रों, गुरुजनों को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए तब कृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था कि ‘नियतं कुरु कर्मं त्वं कर्मं ज्यायो ह्यकर्मणह्’ अर्थात् कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कृष्ण अर्जुन को यही समझाना चाहते थे कि व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता और अपने सम्मान की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
स्वतंत्रता का निनाद कृष्ण अपने अतरण के साथ ही बंधनों को नष्ट करते हैं और इस प्रकार व्यक्ति की स्वतंत्रता का निनाद कर देते हैं। उनके जन्म के पूर्व कंस ने उनके माता-पिता को जेल में बंद कर रखा था। लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ ही जेल के ताले टूटते चले गए और पिता वासुदेव ने उन्हें नंद के घर तक पहुंचा दिया। यहां तक कि उफान पर आई हुई यमुना नदी भी उन्हें कारागार से बाहर निकलकर गोकुल तक पहुंचने से नहीं रोक सकी। यह कथा प्रतीक है इस बात का कि सद् की संभावनाओं पर बंदिशें आरोपित करने वाला व्यक्ति कितना ही ताकतवर क्यों न हो, लेकिन उसके अन्याय के तालों को एक दिन टूटना ही होता है।
स्त्री स्वातंत्र्य के पक्षधर कामरूप के अधिपति यवनासुर पर आक्रमण कर विजय हासिल की और फिर कारागार में बंद 16,000 स्त्रियों को मुक्त कराया। परिजनों ने जब स्त्रियों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया तो उन्होंने सोलह हजार स्त्रियों से स्वयं प्रतीकात्मक विवाह किया। कृष्ण ने द्रोपदी द्वारा आह्वान किए जाने पर हर बार सहायता कर बताया कि वो सामाजिक जीवन में स्त्री स्वातंत्र्य के कितने बड़े समर्थक हैं। इसी कारण जब उनकी बहन सुभद्रा के मन में अर्जुन के प्रति प्रेम का अंकुर जागा लेकिन बड़े भाई बलराम ने इस विवाह की संभावनाओं का विरोध किया तो कृष्ण ने कूटनीतिपूर्वक दोनों को विवाह करने के लिए उकसाया और अर्जुन-सुभद्रा की मदद भी की।
मोह में बंधने की बजाए कत्तव्र्य को दी प्राथमिकता जब कंस के निर्देश पर अकू्रर श्रीकृष्ण को लेने के लिए गोकुल पहुंचे तो कृष्ण के प्रेम में आकुल गोपियों में हाहाकार मच गया लेकिन कृष्ण निर्लिप्त भाव से मथुरा के लिए प्रस्थान कर गए। जिस राधा से कृष्ण के आत्मीय संबंधों के गुण आज सारी दुनिया गाती है, कृष्ण ने गोकुल छोडऩे के पहले अपनी प्रिय बांसुरी उसी राधा को दी और उसके बाद कभी बांसुरी नहीं बजाई। गोकुल के अपने साथियों को छोड़ते समय दुख तो कृष्ण को भी हुआ होगा लेकिन निर्लिप्त भाव से अकू्रर के रथ पर सवार होकर उन्होंने बता दिया कि जब कर्तव्य पुकारता है तो व्यक्ति को हर मोह से मुक्त होकर मंजिल की ओर जाता है। कृष्ण यदि गोपियों के प्रेम के मोह में बंधकर अकू्र के साथ मथुरा जाना स्थगित कर देते तो समूचे बृज को कंस के अन्यायपूर्ण शासन से स्वतंत्रता कैसे मिलती?