जिसमें लोग अपने श्रद्धानुरूप राशि डालते हैं। दरअसल यह रीति रिवाज बरसों से चली आ रही थी कि निधन होने पर कफन ओढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन एक कफन को छोडक़र बाकी को या तो फेंक दिया जाता था या फिर जला दिया जाता था। कई जगह तो इस कपड़ों को जो ले जाता था वह पुन: दुकानदार को बेच देता था और उसी को फिर से लेते थे। पिछले दिनों हुए समाज के वार्षिक अधिवेशन में यह अनुकरणीय व सराहनीय निर्णय लिया गया। जिसका पालन अब राजिम राज के समाजिक जन कर रहे हैं। लोगों ने इसे एक अच्छी पहल बताते हुए हर समाज को इसका अनुकरण करने की बात कही है।
साथ ही एक और निर्णय लिया गया हैं कि समाज के किसी व्यक्ति के निधन होने पर विधवा महिला को दशगात्र के दिन साड़ी देने की प्रथा को भी बंद किया गया हैं। इससे कुरीति पर लगाम लगेगा। पहले होता यह था कि दशगात्र के दिन समाज के विधवा को तालाब में साड़ी दी जाती थी, जिसे बंद कर इसके बदले में नगद राशि देने की रीति की शुरूआत की है।
प्रांतीय प्रतिनिधि गुलाब देशमुख ने चर्चा करते हुए कहा कि कई कुरीति समाज में चल रही थी। कुछ पर वर्तमान परिवेश के हिसाब से बंद करने का निर्णय लिया गया है। कफन और साड़ी देने की प्रथा को इसलिए बंद किया गया है कि एक कफन घर के लोग तो ओढ़ाते ही हैं कुछ आस पड़ोस के लोग या परिवार के लोग भी ओढ़ा देते हैं। ऐसे में ग्रामवासी या सामाजिक लोगों के द्वारा भी कफन और साड़ी ले जाया जाता हैं जो व्यर्थ में ही जाता है।
इसके बदले यदि नगद राशि प्रदान की जाती है तो उक्त परिवार के आर्थिक सहयोग में हम सभी लोग सहभागी बन जाते हैं और ऐसे समय में आर्थिक सहयोग भी सबसे बड़ा मद्द रहता है।